गुरुवार, 5 मई 2011

एक भगत के भोले बाबा को उलाहने: ek Bhagt ke Ulahne: Sanjay Mehta Ludhiana















बोलो जय माता दी, हर हर महादेव, माँ ज्योतावाली ज्वाला देवी की जय, मेरी माँ राज रानी की जय:संजय मेहता : बेनती: हजारो गलतिया हो तो अनजान मंद-बुद्धि समज कर माफ़ कीजियेगा.. संजय मेहता



आपकी भाग्त्वत्स्ल्ताकी मै कहा तक तारीफ़ करू.. भगतो को आप क्षीरसागर दे डालते है.. बालक उपमन्यु  को को क्षीरसागर दे ही डाला है.. इतनी शक्ति रखने पर भी, पूजन के समय, भग्तजनो का वितरण किया है.. जलकण भी आप ग्रहण कर लेते है.. आप की एक आँख रविरूप है, दूसरी सोमरूप है..  और तीसरी अग्निरूप है.. इस प्रकार सभी तेजोमय पिंडो के प्रभु होने पर भी भाग्ज्नो का दिया हुआ दीपदान भी आप खुशी से स्वीकार कर लेते है.. और देखिये , ब्रेह्मी वाणियो का उत्पति-स्थान होने पर भी अपने अल्प्ग्य और मुग्ध भगतो की स्तुति भी आप सुन लेते है.. आपसे अधिक भाग्त्वत्स्ल और कौन है... देखिये ना, आपने विनित्ज्नो के प्रन्यनुरोध से ना मालूम, क्या क्या करने को आप  सदा त्यार रहते है.. 


अच्छा तो अब आप ही बताये की मेरी स्तुति मेरी वाणी का स्वीकार आप क्यों नहीं करते.. मै अब तक आपकी इतनी स्तुति कर चूका, पर आप फिर भी मौन ही है.. यह क्यों?

आपने पार्वती जी से यह प्रतिज्ञा की है के मै एकमात्र  तुमसे  प्यार करूँगा और किसीको नहीं.. कही आप अपनी इस प्रतिज्ञा  - इस वरदान का समरण करके मेरी वाणी के विषय मै उदासीन तो नहीं हो रहे ? यदि यह बात हो तो बताये, आकाश गंगा और चंदर-कला से इतना प्रेम क्यों? उनको आपने सर पर क्यों बिठाया है? और अपनी अत्यंत प्यारी दया को हृदय मै क्यों स्थान दिया है? इन तीनो के सम्बन्ध मै आपने अपनी प्रतिज्ञा क्यों तोड़ी है? फिर मैंने ही एसा कोण सा गुरुतर अपराध किया है जो मेरी स्तुतिमय वाणी का आप इतना निरादर कर रहे है?

अच्छा, और सब बाते जाने दीजिये.. एक बात तो बताये - मेरी वाणी के घर से आप परिचित है या नहीं? मेरे ह्रदय ही उसका घर है और वाही - उसी घर मै -- आप चोबीस घंटे रहते है  (अर्थात मैंने आपको अपने ह्रदय मै बिठा रखा है) यह क्यों? आपका यह अन्याय कैसा? जिस से आपको इतनी नफरत उसी के घर मै, उसी के साथ वास! जरा संसार की तरफ आँख उठाकर तो देखिये! मानिनी महिलाओं के साथ ही यदि उनका प्रेमी रहे और रहकर भी उनकी उपेक्षा करे, तो उनको मर जाने से भी अधिक दुःख होता है.. या नहीं... ? फिर क्यों आप मेरी वाणी को इतना  दु:सह दुःख देने से विरत नहीं होते? बहुत अच्छा, आप के जो जी मै आये सो कीजिये...

माँ सरस्वती! अपने आराध्यदेव को उपेक्षा करने दे.. | तू अपनी कारुणिक विज्ञप्ति उन्हें सुनना बंद ना कर.. धीरज ना छोड़.. भगवती भवानी, चन्द्र-माँ  की कला और वेयोम्गंगा वाही उनके शरीरपर ही विराज रही है.. वे तीनो स्त्री है.. और स्त्री स्त्री की जरुर ही तरफदार होती है.. अतएव कभी न कभी  तो वे तेरी सिफारिश शिवजी से जरुर ही करेंगी.. अब नहीं तो तब उन्हें तेरा आदर करना ही पड़ेगा.. एक नहीं तीन तीन स्त्रियो की सिफारिश .. कभी  ना कभी  सफल हुए बिना न रहेगी..

हा, डॉ इतना ही है की यह चंदेर्लेखा स्वभाव से ही बड़ी कुटिला है.. स्वर्ग-गंगा भी प्र्प्च-चतुर और चंचला है.. देख ना, उची - नीची तरंगे उसमे उठा ही करती है.. अतएव इसी नारियो का विश्वास नहीं किया जा सकता..  कुतिलो और चंचलो का क्या ठिकाना? सम्भव है, वे तुझे दाद ना दे.. अच्छा ना दे तो ना सही.. हू .. दया-हृदय  पार्वती जी तो वैसी .. नगेंदर कन्या (पर्वत-पुत्री)  होने के कारण उनकी क्षमाशीलता मै संदेह नहीं.. महाभाग पार्वती कदापि तेरी अवज्ञा ना करेगी..  वे नि::संदेह ही तेरी आतिर्विधुर  विघिप्ती स्वामी को सुनकर तेरा आश्वासन कराएगी.. 

सरकार आप मेरी रक्षा क्यों नहीं करते? मेरे भोले बाबा सुनते हो आप क्या?

मै पापी हु, दुषकर्मकारी  हु.. --- क्या यह समझकर ही आप मेरा परित्याग  कर रहे है? नहीं , नहीं.. ऐसा करना तो आपको मुनासिब नहीं..  क्युकी.. भयरहित प्राज्ञ, और सुक्र्त्कारी को रक्षा से क्यों प्रयोजन ... रक्षा तो पापिओ, भेयारतो और ख्लोही की की जाती है.... जो स्वय ही रक्षित है उसकी रक्षा नहीं की जाती .. मुझ महापापी, महाध्म और महासाधु की रक्षा  आप ना करेंगे तो फिर करेंगे किसकी? मै ही तो आपकी दया - आपके द्वारा की गई रक्षा - का सबसे अधिक अधिकारी हु.. आप ही कहिये, हु या नहीं.. हां... आप शायद यही कह रहे है.. ही ही ही यही कह रहे है ना मेरे प्यारे भोले बाबा.. 

तेरे अध्:पात तो तेरे ही दुष्कर्मो से हुआ है. अपने किये का फल भोग.. रक्षा रक्षा क्यों चीलाता  है.? भोलेबाबा आपका यह कहना बजा है.. मै अपने ही पापो से जरुर पतित हुआ हु... तथापि, एसा होने पर भे मै आपकी अवज्ञा का पात्र नहीं.. आपको मेरा उद्दार करना ही चाहिए.. आप तो सर्वसमर्थ महादेव है.. साधारण दयाशीलजन 
भी तो पतितो की उपेक्षा नहीं करते.. यदि कोई विवेकहीन धप्त पशु स्वयमेव किसी अंधकूप मै गिर जाता है.. तो कारुणिक मनुष्य उसे भीउस कुए से निकाल लेते है.. अतएव अपने ही कुकर्मो से पतित मुझ नरपशु पर भे दया करना आपका कर्तव्य है

आप अपने इस कर्तव्य - पालन से यदि बचना चाहे तो भी नहीं बच सकते.. बचने की चेष्टा करने से आप पर पक्षपात का दोष लगेगा... आप अन्यायी ठहराए जायेंगे..  क्युकी आपने मेरे ही सद्रश और भी अनेक ज्नोका परित्राण किया है.. यदि मेरे समान धर्मा अन्य कितने ही जनों को आप अपने अनुग्रेह्का पात्र बना चुके है तो मुझे क्यों नही बनाते? आपने अपने गले मै जिस साप को लिपटा रखा है.. उसकी करतूत पर आपने विचार किया है.. जैसे वेह है, ठीक वैसा ही मै भी हु .. देखिये

मै निश्कर्ण हु.. किसी की बात नहीं सुनता.. मै कुसुती व्यसनी अर्थात कुमार्ग-गामी हु.. मै द्विजिव्हा अर्थात असत्यवादी हु.. यह सब ठीक है.. तो क्या मेरे इन्ही दुर्गुणों के कारण आप मुझ नि:शरण का परित्याग करने चेले है? भला, आपने अपने इस सर्पराज वासुकी के भी गुणों या दुर्गुणों का कभी विचार किया है? वह भी तो ठीक मेरे ही सद्रश है.. वह भी तो निश्कर्ण (कर्ण-हीन) है.. वह भी तो कुसुति व्यसनी (कु=पृथ्वी, सृति =मार्ग) अर्थात पृथ्वी पर पेट के बल चलने वाला है.. वह भी तो द्विजिव्हा अर्थात मुंह मै दो जिविए रखनेवाला है.. उस पर तो इनती कृपा और मेरी इतनी उपेक्षा ..

हा, एक बात जरुर है.. किसी जमाने मै इस शेषनाग ने अपने दो हजार जिह्वाओ से आपकी स्तुति की थी.. अतएव शायद आप उसकी इस सेवा का कारण ही उस पर इतने प्रस्न हुए है.. और उसे अपने कंठ मै स्थान दिया है.. यदि यह बात है तो मुझे आपने दो हजार जिह्वाए क्यों ना दी? मेरे मुख मै तो केवल एक ही जिव्हा है.. उस एक ही से मै आबल्याकाल आपकी बराबर स्तुति कर रहा हु.. सो दयासागर, दो हजार जिह्वाओ स्तुति करनेपर यदि आप किसी को अपने कंठ मै स्थान दे सकते है तो एक ही जिव्हा से स्तुति करनी वाले मुझ आप अपने पैरो के तलवे नीचे ही पड़ा रहने दीजिये... मुझे कंठ ना चाहिए .. आपके तलवे तले पड़े रहने से मै अपने को क्रतार्थ समझूंगा..

अच्छा , इस सर्पराज को जाने दीजिये.. अपने वाहन बैल ही के गुणों पर विचार कीजिये.. वह बे तो मेरे ही सद्रश है.. जो बाते मुझ मे है.. वाही उसमे भी.. वह बे मेरे ही समान धर्मा है.. कैसे वो भी सुन लिए भोले बाबा..


मै श्र्द्दंगी अर्थात बड़ा घमंडी हु.. मै नीर-विवेक हु.. मै पशुप्राय  या नरपशु हु.. मै उन्मत्त हु.. तो क्या इसी से आप मुझ महकत्र का परिहार करने चले है.. क्या आपका बैल एसा नहीं? यह भी तो श्रद्दंगी है.. उसके भी तो सिंग  है.. वह भी तो विवेक-विरहित है.. भ भी तो पशु है.. वह भी तो उन्मत है.. फिर उसके क्या सुरखाब का पर लगा है.. जो आपने अपने चरण-स्पर्श उसे अपने अनुग्रह का पात्र बनाया है.. हम दोनों ही बराबर है.. पर आपने बैल का तो इतना पक्षपात और मेरी इतनी अवज्ञा.. यह अन्याय है.. या नहीं.. बताओ भोले बाबा..

हा.. इसमे संदेह नहीं की आपका वाहन यह बैल, कभी  कभी जरूरत पड़ने पर आपकी सवारी के काम आता है.. सम्भव है.. इसी से आप उस पर इतने दयालु हो.. और होना भी चाहिए.. जो जिसके काम आता है उस पर वह भी किरपा करता ही है.. इस  Give and Take वाली नीतिका मै भी कायल हु.. अच्छा तो , सरकार, यह बैल आपको अपनी पीठ पर सदा ही सवार तो कराए रहता ही नहीं.. जब कभी जरूरत पड़ती है तभी यह अपनी पीठ पर आपको बिठा लेता है.. अब आप जरा मेरी सेवा का भी तो ख्याल कीजिये... मैंने तो आपको पीठ पर नहीं.. ह्रदय पर बिठा रखा है.. सो भी कभी कभी नहीं, दिन रात, चोबीसो घंटे.. फिर भी मेरा परित्याग ... हूऊ हूऊऊ दुहाई.. आपकी, आपका यह सरासर अन्याय है.. दिन रात आपको हृदय पर बिठाकर भी मै आपकी कृपा का पात्र नहीं ?


महाराज, अब और विलम्ब ना कीजिये.. हमलोग जितने मनुष्य है सभी काल के पाश मई फंस्नेवाले है.. इस विषय मई हम अत्यंत ही विवश है.. जिस तरह धीवर मछलियों को किसी दिन अचानक अपने जाल मई फांस लेता है.. उसी तरह मृत्यु भी हमे फांस लेती है.. उस समय किसी की भी शरण जाने से हमारा परित्राण नहीं.. मुन्नू का विवाह हम अभी तक नहीं कर सके, हमारा न्य महल भी तक बनकर तयार नहीं हुआ.. हाईकोर्ट  की  जजी मिलने का हुक्म हो जाने पर भी अभी तक हम उस आसनपर नहीं बेथ सके.. इस तरह की दलीलों और अपीलों का असर मौत पर नहीं होता.. वह एकाएक  आकर हमें ले गए बिना मानने वाली नहीं.. जबतक वह नहीं आई.. तभी तक अपने परित्राण की फ़िक्र मनुष्य को कर लेनी चाहिए..

अतएव  , मौत आने के पहले ही आप मुझपर कृपा क्र दीजिये.. मेरे इस रोने चिलानेप्र कुछ तो ध्यान दीजिये.. मेरी प्राथना सुन लीजिये.. भगवन , मुझे बचा लीजिये.. आप ही कहिये, यदि आपके सद्रश करुना-सागर ने भी मेरी रखा ना की तो मै फिर किसकी शरण जाऊँगा? क्या आपसे बढकर भी कोई एसा हाई जो मुझ-सद्दर्श पापी को पार लगा सके..

आप शायद कहे की तू मौत से क्यों इतना डरता है? मौत तो सभी को आती है.. डरने से वह दूर नहीं हो सकती.. इसके जवाब मै मेरा यही निवेदन है की जो पैदा होते है वह मरता जरुर है.. मै इस बात को अच्छी तरह जानता हु , मगर सरकार! कुछ लोग मौत से बच भी तो गए है.. रजा श्वेतकेतु और आपके गनश्रेष्ट  नंदी को ही मै उदाहर्ण  के तौर पर पेश करता हु.. आपकी कृपा से इन लोगो की मृतु टल गई या नहीं? हां, यह सच है की बहुत बड़ी तपस्या के प्रभाव  से इन्हों ने मृतु को जीता है.. मुझमे उतना तपोबल नहीं.. कहा उनका घोर तप , और कहा मेरा ना कुछ! अच्छा, तो यदि मेरी मौत नहीं टल सकती तो मेरे लिए कुछ तो रियायत क्र दीजिये.. और कुछ न सही तो आप इतना ही कर दीजिये

मै आपकी रोज पूजा करता हु.. पूजा हो चुकनेपर आपके सिंहासन नीचे स्थित , आपके पैर रखने की चोकीपर, अपना सिर रखकर मै बड़े ही भाग्तिभाव से उसका आलिंगन करता हु.. बस आप इतना कर दीजिये की उस दशा मै मुझे नींद आ जाए.. और उस नींद ही के  बहाने मेरे प्राणों का उत्क्रमण हो जाए..

जग्द्वर अपने दुःख-दर्द खानी सुनाते सुनाते थक गया.. पर शिवजी ने उसकी खबर तक ना ली.. तब वह व्याकुल हो उठा और लगा शिवजी को उल्दी - सीधी सुनाने.. अत्यंत पुरष वाक्य कहने मै भी उसे संकोच ना हुआ.. तरह तरह उसने शिवजी को उलाहना दिया.. उनकी भ्र्त्सनात्क उसने की.. उन्हें अबल , आकुल, अक्षम , निर्दय और ना मालूम क्या क्या.. कह डाला.. वह रोता भी गया और शिवजी को धिक्कारता और उन्हें खरी खोटी सुनाता भी गया.. इस प्रकार विलाप करते करते वह कहता है..

आह! यह आप क्या कर रहे है! मुझे तो यमराज खींचे लिए जा रहा है और आप तमाशा देख रहे है.. इसे समय भी आपको दिल्लगी सूझी है.. मै तो मर रहा हु और आप मजाक कर रहे है.. क्या आपको यही मुनासिब है.. मै सुनता आ रहा हु की आपका कुछ सम्बन्ध करुणा से भी है..  तो क्या आपका यह निर्दय व्यवहार देखकर वह करुणा भी आपके ह्रदय मै पीड़ा  नहीं पैदा करती? अच्छा, यदि वह नहीं पीड़ा पहुंचाती यदि उससे आपका कुछ भी सम्बन्ध नहीं तो क्या आपनी शरण आये हुए मुझ अभागी को काल पाश मै फंसा देख आपको लज्जा भी नहीं आती..

मेरा तो बुरा हाल है.. आर्तियो से  अत्यंत आकुल हु.. होश तक मेरे ठिकाने नहीं.. मेरी तो अक्ल ही मारी गई है.. इसी से मै पिशाचग्र्स्त पुरुष के सद्र्श जो कुछ मुंह से निकलता है.. निशंक कहता चला जा रहा हु.. मुझ मै उचित-अनुचित ज्ञान नहीं.. इस दशा मै यदि मै कठोर से भी कठोर बाते कहू तो क्या आश्चर्य ? अरे निर्दयी.. अरे निष्ठुर!! अरे निश्क्रप!!! आश्चर्य तो इस बात पर होता है की मेरे इन दुर्वचनो को सुनकर भी तू अपने मुंह पर लगी हुई मौन की कुहर नहीं तोड़ता ... मेरी यह करुणा कथा सुनकर कुछ भी तो बोल...

मै ही भूलता हु.. आपसे मेरी कुछ भी भलाई होने की नहीं... अप से मुझे कुछ भी आशा नहीं...

सर्वज्ञ , शिव, शंकर, मृतुन्जय , म्रद आदि आपके आठ - दस नाम बड़े ही सुंदर है.. वे सभी शुब्सुचक है.. किसी का अर्थ है.. कल्यानकर्ता, किसी का सुखदाता, किसी का विश्वनाथ, किसी का सर्वज्ञ और किसी का मृतु विजई.. पर यह सब नाम किस के लिए.. ओरो के लिए.. मेरे लिए नहीं.. जो सोभाग्यशाली है उन्ही को आप , अपने इन नामो के अनुसार , फल देते है - किसी को सुख देते है, किसी का कल्याण करते है.. किसी की मृतु ताल देते है.. रहा मै, सो मुझ अभागी के विषय मै आपका एक और ही नाम सार्थक है..  वह नाम है स्थाणु (ठूंठ) ! पत्र, पुष्प, फल और शाखाओ तक से रहित सूखे वृक्ष से भी बला कभी किसी को कुछ मिला है? उस से तो छाया तक की आशा नहीं.. अतएव, आप जब मेरे लिए एकमात्र स्थाणु हो रहे है तब मै आपसे क्या आशा रखु? यह सब मेरे ही दुर्भाग्य का विज्र्म्भन है..

महाराज! बहुत हो चूका.. अब तो मुझ पर कुछ कृपा की जाए.. मुझे इससे अधिक अच्छी प्राथना करना नहीं आता

यदि  मै मीठी मीठी बाते बना सकता, यदि मै आपकी म्नोहार्नी  स्तुति करने की  योगता रखता, यदि मुझे खुशामद करना आता, तो सम्भव है, आप प्रसन होकर मुझ पर कृपा करते.. पर मै कृ तो क्या करू.. मुझमे वैसी शक्ति ही नहीं.. मै तो ठहरा मंदबुध्ही , अज्ञ , महामुर्ख   ! अतएव आप मुझसे वैसी ह्र्द्याहारिणी  उक्तियो की आशा ना रखिये.. आप तो केवल मेरी दीनता को देखिये.. मै आर्त्त हु.. नि:शरण हु, दुखी हु.. आपकी दया का भिखारी हु.. मेरा यह विलापात्म्क रोना-धोना सुनकर दोडिये.. देर ना कीजिये.. और मुझ पापी के मस्तक को अपने पैरो का स्पर्श करा जाइये ...

Compose By Sanjay Mehta...















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