रविवार, 30 सितंबर 2012

राधाजी को कभी क्रोध नहीं आया है. By Sanjay Mehta Ludhiana








भागवत में लिखा है कि श्रीकृष्ण जी को कभी क्रोध आता है, पर राधाजी को कभी क्रोध नहीं आया है... द्रौपदी कि पांच संतानों कि जब हत्या हो गई, तब श्रीकृष्ण को क्रोध आ गया और उन्होंने अश्वत्थामा को शाप दे दिया, श्रीराधा जी को कभी क्रोध नहीं आता है, माया किसी को नहीं छोडती है, पर राधाजी का कीर्तन जो करता है, राधाजी के नाम का जो जप करता है, उसे माया त्रस्त नहीं कर सकती है, श्रीराधाजी जीव का ब्रह्म-सम्बन्ध कराती है

जीवन में ऐसा समय आता है, जब मानव कहता है कि "मै सुखी हु" भगवान उसे पूर्ण अनुकूलता देते है. अधिक भक्ति के लिए, अधिक परोपकार के लिए भगवान उसे सुख देते है, परन्तु अनुकूलता के मिलने पर मानव अधिक भक्ति नहीं करता है, मानव अधिक वासना-सुख भोगता है, भगवान की दी हुई अनुकूलता का अवसर मानव गवां देता है और तब भगवान को बुरा लगता है. यह जीव योग्य नहीं है. भगवान उसे सजा देते है, प्रभु को जब क्रोध आता है, तब राधाजी समझाती है - "दया रखिये, जीव दुष्ट है पर आप तो दयालु है.. अब जीव सुधर जायेगा" राधाजी सिफारिश करती है.. परमात्मा की कृपा -शक्ति राधा जी ही है. राधाजी प्रभु से विनय करती है "यह जीव हमारी शरण में आया है, मुझे इस पर दया आती है"

पापी जीव भगवान के समक्ष जाने का साहस नहीं कर सकता पर राधाजी के समक्ष जाता है, व्यवहार में भी ऐसा ही दीख पड़ता है कि कैसा भी लड़का हो, पिता जब क्रोधित होते है तो वह माता के समक्ष हाथ जोड़कर खड़ा रहता है, तब माता सब कुछ-भूल जाती है. लड़के को प्रेम से भोजन कराती है, उसे लड़के का कोई दोष नहीं दिखाई देता है और वह उस के पिता को समझाती है .. साधारण स्त्री में ऍसी शक्ति है तो राधा जी में कितनी शक्ति होगी.
अब बोलिए जय श्री राधे. जय माता दी जी .. जय जय माँ. जय माँ दुर्गे. जय माँ चिंतपूर्णी


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Sanjay Mehta








शनिवार, 29 सितंबर 2012

पूर्वजों का श्राद्ध कर्म करना आवश्यक क्यों? By Sanjay Mehta Ludhiana







पूर्वजों का श्राद्ध कर्म करना आवश्यक क्यों?

ब्रह्मपुराण के मतानुसार अपने मृत पितृगण के उद्देश्य से पितरों के लिए श्रद्धा पूर्वक किये जाने वाले कर्म विशेष को श्राद्ध कहते है, श्राद्ध से ही श्रद्धा कायम रहती है. कृतज्ञता की भावना प्रकट करने के लिए किया हुआ श्राद्ध समस्त प्राणियों में शांतिमयी सद्दभावना की लहरें पहुंचाता है. ये लहरें, तरंगे ना केवल जीवित को बल्कि मृतक को भी तृप्त करती है. श्राद्ध द्वारा मृतात्मा को शांति-सद्गति मोक्ष मिलने की मान्यता के पीछे यही तथ्य है.. इसके आलावा श्राद्धकर्ता को भी विशिष्ट फल की प्राप्ति होती है
मनुस्मृति में लिखा है. :- मनुष्य श्रद्धावान होकर जो - जो पदार्थ अच्छी तरह विधि पूर्वक पितरो को देता है, वह - वह परलोक में पितरों को आनंद और अक्षेय रूप में प्राप्त होता है .
ब्रह्मपुराण में कहा गया है कि आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में यमराज सभी पितरो को अपने यहाँ से छोड़ देते है, ताकि वे अपनी संतान से श्राद्ध के निमित्त भोजन ग्रेहण कर ले. इस माह में श्राद्ध ना करने वालों के पितृ अतृप्त उन्हें शाप देकर पितृ लोक को चले जाते है. इससे आने वाली पीढियो को भारी कष्ट उठाना पडता है, उसे ही पितृदोष कहते है. पितृ जन्य समस्त दोषों कि शांति के लिए पूर्वजों कि मृत्यु तिथि के दिन श्राद्ध कर्म किया जाता है, इसमें ब्राह्मणों को भोजन कराकर तृप्त करने का विधान है, श्राद्ध करने वाले व्याक्ति को क्या फल मिलता है , इस बारे में गरुंडपुराण में कहा गया है :-
श्राद्ध कर्म करने से संतुष्ट होकर पितृ मनुष्यों के लिए आयु, पुत्र, यश, मोक्ष , स्वर्ग, कीर्ति, पुष्ठि, बल, वैभव, पशुधन, सुख, धन और धान्य वृद्धि का आशीष प्रदान करते है.
यमस्मृति 36.37 में लिखा है कि पिता, दादा और परदादा ये तीनो ही श्राद्ध की ऐसे आशा करते है , जैसे वृक्ष पर रहते हुए पक्षी वृक्ष में फल लगने की आशा करते है, उन्हें आशा रहती है कि शहद , दूध व् खीर से हमारी संतान हमारे लिए श्राद्ध करेगी
देवताओ के लिए जो हव्य और पितरो के लिए कव्य दिया जाता है, ये दोनों देवताओ और पितरो को कैसे मिलता है , इसके सम्बंध में यमराज ने अपनी स्मृति में कहा है :- मन्त्र्वेक्त्ता ब्रह्मण श्राद्ध के अन्न के जितने कौर अपने पेट में डालता है, उन कौरों को श्राद्धकर्ता का पिता ब्राह्मण के शरीर में स्थित होकर पा लेता है.
विष्णुपुराण में लिखा है की श्रद्धायुक्त होकर श्राद्धकर्म करने से केवल पितृगण ही तृप्त नहीं होते, बल्कि ब्रह्मा, इंद्र, रूद्र, आशिवनिकुमार, सूर्य, अग्नि, अष्टवसु , वायु, ऋषि , मनुष्य, पशु, पक्षी और सरीसृप आदि समस्त भूत प्राणी तृप्त होते है.
अब बोलिए जय माता दी, जय पितरो की. जय जय माँ.

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Sanjay Mehta








शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

सरस्वती को ही ज्ञान की देवी क्यों माना जाता है ? By Sanjay Mehta Ludhiana







सरस्वती को ही ज्ञान की देवी क्यों माना जाता है ?

माँ सरस्वती विद्या , संगीत और बुद्धि की देवी मानी गई है. देवीपुराण में सरस्वती को सावित्री, गायत्री, सती, लक्ष्मी और अम्बिका नाम से संबोधित किया गया है, प्राचीन ग्रंथो में उन्हें वाग्देवी , वाणी, शारदा, भारती , वीणापाणी, विद्याधरी , सर्वमंगला आदि नामो से अलंकृत किया गया है, यह सम्पूर्ण संशयो का उच्छेद करने वाली तथा बोधस्वरुप्नी है. इनकी उपासना से सब प्रकार की सिद्धिया प्राप्त होती है. ये संगीतशास्त्र की भी अधिष्ठात्री देवी है, ताल, स्वर , लय, राग-रागिनी आदि का प्रदुभार्व भी इन्ही से हुआ है. सात प्रकार के स्वरों द्वारा इनका स्मरण किया जाता है, इसलिए ये स्वरात्मिका कहलाती है, सप्तविध स्वरों का ज्ञान प्रदान करने के कारण ही इनका नाम सरस्वती है. वीणावादिणी ,सरस्वती संगीतमय आह्लादित जीवन जीने की प्रेरनावस्था है, वीणावादन शरीर यंत्र को एकदम स्थैर्य प्रदान करता है. इसमें शरीर का अंग-अंग परस्पर गुंथकर समाधि अवस्था को प्राप्त हो जाता है.
सरस्वती के सभी अंग शवेताम्भ है , जिसका तात्पर्य यह है की सरस्वती स्त्त्वगुनी प्रतिभा स्वरूप है.. इसी गुण की उपलब्धि जीवन का अभीष्ट है, कमल गतिशीलता का प्रतीक है.. यह निरपेक्ष जीवन जीने की प्रेरणा देता है... हाथ में पुस्तक सभी कुछ जान लेने, सभी कुछ समझ लेने की सीख देती है ..
देवी भागवत के अनुसार, सरस्वती को ब्रह्मा, विष्णु, महेश द्वारा पूजा जाता है, जो सरस्वती की आराधना करता है, उसमे उनके वहां हंस के नीर-क्षीर-विवेक गुण अपने आप ही आ जाते है, माघ माह में शुकल पक्ष की पंचमी को बसंत पंचमी पर्व मनाया जाता है. तब सम्पूर्ण विधि-विधान से माँ सरस्वती का पूजन करने का विधान है. लेखक, कवि, संगीतकार सभी सरस्वती की प्रथम वंदना करते है. उनका विश्वास है की इससे उनके भीतर रचना की उर्जा शक्ति उत्पन्न होती है. इसके आलावा माँ सरस्वती देवी की पूजा से रोग, शोक , चिंताए और मन का संचित विकार भी दूर होता है.
एक समय ब्रह्माजी ने सरस्वती से कहा - 'तुम किसी योग्य पुरष के मुख में कवित्वशक्ति होकर निवास करो' उनकी आज्ञानुसार सरस्वती योग्य पात्र की तलाश में निकल पड़ी. पीड़ा से तड़प रहे एक पक्षी को देखकर जब महर्षि वाल्मीकि ने द्रवीभूत होकर यह श्लोक कहा :---
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती: समा: ।
यत क्रोञ्च्मिथुनदेक्म्व्धी: काममोहितम ।।
वाल्मीकि कि असाधारण योग्यता और प्रतिभा का परिचय पाकर सरस्वती ने उन्ही के मुख में सर्वप्रथम प्रवेश किया. सरस्वती के कृपापात्र होकर मह्रिषी वाल्मीकि जी ही "आदिकवि" के नाम से संसार में विख्यात हुए.
रामायण के एक प्रसंग के अनुसार जब कुम्भकर्ण कि तपस्या से संतुष्ट होकर ब्रह्मा जी उसे वरदान देने पहुंचे , तो उन्होंने सोचा कि यह दुष्ट कुछ भी ना करे, केवल बैठकर भोजन ही करे, तो यह संसार उजड़ जायेगा.. अत: उन्होंने सरस्वती को बुलाया और कहा कि इसकी बुद्धि को भ्रमित कर दो. सरस्वती ने कुम्भकर्ण कि बुद्धि विकृत कर दी.. प्रणाम यह हुआ कि छह माह कि नींद मांग बैठा .. इस प्रकार कुम्भकर्ण में सरस्वती का प्रवेश उनकी मृत्यु का कारण बना
अब बोलिए जय माँ सरस्वती. जय माता दी जी. जय जय माँ. जय माँ दुर्गे. जय माँ राजरानी. जय माँ वैष्णो रानी
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Sanjay Mehta








गुरुवार, 27 सितंबर 2012

गंगा विशेष पवित्र नदी क्यों? By Sanjay Mehta Ludhiana







गंगा विशेष पवित्र नदी क्यों?

गंगा प्राचीन काल से ही भारतीय जनमानस में अत्यंत पूज्य रही है, इसका धार्मिक महत्त्व जितना है, विश्व में शयद ही किसी नदी का होगा.. यह विश्व कि एकमात्र नदी है, जिसे श्रद्धा से माता कहकर पुकारा जाता है
महाभारत में कहा गया है.. "जैसे अग्नि ईधन को जला देती है, उसी प्रकार सैंकड़ो निषिद्ध कर्म करके भी यदि गंगा स्नान किया जाये , तो उसका जल उन सब पापों को भस्म कर देता है, सत्ययुग में सभी तीर्थ पुण्यदायक होते थे.. त्रेता में पुष्कर और द्वापर में कुरुक्षेत्र तथा कलियुग में गंगा कि सबसे अधिक महिमा बताई गई है. नाम लेने मात्र से गंगा पापी को पवित्र कर देती है. देखने से सौभाग्य तथा स्नान या जल ग्रेहण करने से सात पीढियों तक कुल पवित्र हो जाता है (महाभारत/वनपर्व 85 /89 -90 -93 "

गंगाजल पर किये शोध कार्यो से स्पष्ट है कि यह वर्षो तक रखने पर भी खराब नहीं होता .. स्वास्थवर्धक तत्वों का बाहुल्य होने के कारण गंगा का जल अमृत के तुल्य, सर्व रोगनाशक, पाचक, मीठा, उत्तम, ह्रदय के लिए हितकर, पथ्य, आयु बढ़ाने वाला तथा त्रिदोष नाशक है, इसका जल अधिक संतृप्त माना गया है, इसमें पर्याप्त लवण जैसे कैल्शियम, पोटेशियम, सोडियम आदि पाए जाते है और 45 प्रतिशत क्लोरिन होता है , जो जल में कीटाणुओं को पनपने से रोकता है. इसी कि उपस्थिति के कारण पानी सड़ता नहीं और ना ही इसमें कीटाणु पैदा होते है, इसकी अम्लीयता एवं क्षारीयता लगभग समान होती है, गंगाजल में अत्यधिक शक्तिशाली कीटाणु-निरोधक तत्व क्लोराइड पाया जाता है. डा. कोहिमान के मात में जब किसी व्याक्ति कि जीवनी शक्ति जवाब देने लगे , उस समय यदि उसे गंगाजल पिला दिया जाये, तो आश्चर्यजनक ढंग से उसकी जीवनी शक्ति बढती है और रोगी को ऐसा लगता है कि उसके भीतर किसी सात्विक आनंद का स्त्रोत फुट रहा है शास्त्रों के अनुसार इसी वजह से अंतिम समय में मृत्यु के निकट आये व्यक्ति के मुंह में गंगा जल डाला जाता है .

गंगा स्नान से पुण्य प्राप्ति के लिए श्रद्धा आवश्यक है. इस सम्बन्ध में एक कथा है. एक बार पार्वती जी ने शंकर भगवान से पूछा -"गंगा में स्नान करने वाले प्राणी पापो से छुट जाते है?" इस पर भगवान शंकर बोले -"जो भावनापूर्वक स्नान करता है, उसी को सदगति मिलती है, अधिकाँश लोग तो मेला देखने जाते है" पार्वती जी को इस जवाब से संतोष नहीं मिला. शंकर जी ने फिर कहा - "चलो तुम्हे इसका प्रत्यक्ष दर्शन कराते है" गंगा के निकट शंकर जी कोढ़ी का रूप धारण कर रस्ते में बैठ गये और साथ में पार्वती जी सुंदर स्त्री का रूप धारण कर बैठ गई. मेले के कारण भीड़ थी.. जो भी पुरष कोढ़ी के साथ सुंदर स्त्री को देखता , वह सुंदर स्त्री की और ही आकर्षित होता.. कुछ ने तो उस स्त्री को अपने साथ चलने का भी प्रस्ताव दिया. अंत में एक ऐसा व्यक्ति भी आया, जिसने स्त्री के पातिव्रत्य धर्म की सराहना की और कोढ़ी को गंगा स्नान कराने में मदद दी. शंकर भगवान प्रकट हुए और बोले. 'प्रिय! यही श्रद्धालु सदगति का सच्चा अधिकारी है...."
अब बोलिए जय गंगा मैया. हर हर महादेव. जय शिव भोला भंडारी... जय मेरी माँ कालका... जय मेरी माँ दुर्गे.. जय माँ राजरानी...
जय हो. जय जय माँ
जय गंगा मैया

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Sanjay Mehta








बुधवार, 26 सितंबर 2012

लाली देखन मै गई, मै भी हो गई लाल By Sanjay mehta Ludhiana







गोपी बालकृष्णलाल के दर्शन करने के लिए यशोदा माता के घर जाती है, पर जब प्रेम बढ़ने लगा तब जहाँ -तहां उसकी दृष्टि जाती है, वहां - वहां उसे श्री कृष्ण दिख पड़ते है, भगवान में मग्न गोपी देह -ज्ञान को भूल जाती है, तब गोपी को अपने श्री कृष्ण दीख पड़ते है.

"लाली देखन मै गई, मै भी हो गई लाल"
जब तक देह-ज्ञान है, तब तक परमात्मा नहीं दिख पड़ते, देव के दर्शन करने है तो देह - ज्ञान भूलना पड़ेगा.. जिसको याद रहता है कि "मै पति हु, मै पत्नी हु, मै पुरष हु, मै स्त्री हु" वह परमात्मा के दर्शन उपयुक्त रूप से नहीं कर सकता, उसे परमात्मा के दर्शन ठीक से नहीं होते. परमात्मा की भक्ति करते हुए जो देह-भान भूलता है , उसे अपने भीतर विराजमान परमात्मा के दर्शन होते है, आत्मा-स्वरूप में परमात्मा के दर्शन को ही अपरोक्ष दर्शन करते है.
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Sanjay Mehta









मंगलवार, 25 सितंबर 2012

थोडा सोचिये; मंदिर में आपको क्या दिखलायी देता है? भगवान या मूर्ति? By Sanjay Mehta Ludhiana







थोडा सोचिये; मंदिर में आपको क्या दिखलायी देता है? भगवान या मूर्ति? आप मानेंगे कि प्राय: मूर्ति दिखाई देती है

आँख को भले ही मूर्ति दिखायी दे, वैष्णव ऍसी भावना रखते है कि यह मूर्ति नहीं है, ये प्रत्यक्ष परमात्मा है, जिसका मन शुद्ध है, उसे भावना से मंदिर में भगवान दिखाई देते है. ये प्रत्यक्ष साक्षात परमात्मा है.. बैकुंठ के नारायण ये ही है. जो मंदिर में सिंहासन पर विराजमान है. वे साक्षात प्रभु ही तो है..

ह्रदय में भाव ना तो तो मंदिर में पत्थर की मूर्ति दिखाई देती है. वैष्णव मंदिर में मूर्ति के दर्शन नहीं करते, परमात्मा के दर्शन करते है, आप बहुत प्रेम-भाव से प्रभु के दर्शन कीजिये, प्रभु के उपकार को अनुभूत करके थोड़ी स्तुति कीजिये. सकल्प कीजिये कि आज से मैंने पाप छोड़ दिये. आज से मै भगवान की कथा सुनाने वाला हु... आज से मै सत्कर्म करूँगा. अब मै भगवान का हो गया हु. मै ऐसा ही बोलूँगा, जो मेरे भगवान को पसंद होंगा... मै ऐसा ही कार्य करूँगा जो मेरे प्रभु को प्रिय होगा..

जब मानव पाप छोड़कर भक्ति का संकल्प करता है, तब भगवान मन में धीरे - धीरे हँसते है, प्रभु को आनंद होता है कि आज मेरा पुत्र समझदार हो गया है, पत्थर कि जड़ मूर्ति कभी नहीं हस्ती है, आप से कभी पाप हो जाये तो पाप के दर्शन करने पर आपको ऐसा अनुभव होगा कि आज भगवान मुझ से नाराज हो गये है. आज प्रभु जी प्रसन्न नहीं है. आज मुझे देख कर हँसते भी नहीं है. भगवान मुझ पर दृष्टि नहीं डाल रहे है बल्कि उपालम्भ दे रहे है. मानो कह रहे है कि मेरा नाम धारण किया पर अभी तक पाप नहीं छोड़ रहे हो... पुत्र बुरा हो जाता है तो पिता को क्षोभ होता ही है.

जीव इश्वर का पुत्र है. जीव पाप करके भगवान के दर्शन करने जाता है तब उसे देखकर भगवान को क्षोभ -संकोच होता है.. भगवान उलाहना देते है. मानो कह रहे है कि आज तुम्हारी और देखने का मन नहीं हो रहा है. मेरा पुत्र होकर ऐसा पाप कर रहा है? पत्थर की मूर्ति उलाहना नहीं देती है, पत्थर कि मूर्ति हंसती भी नहीं है. जिसका ह्रदय शुद्ध है, जिसकी आँख पवित्र है, जिसके हृदय में भावना है, उसे ही मंदिर में भगवान दीखते है. आँख से भले ही पत्थर की मूर्ति दिखाई दे, वैष्णव भावना से भगवान के ही दर्शन करते है. सौ रूपये के नोट में एक भी पैसा नहीं दिख पड़ता. आँख को तो कागज ही दिखाई देता है, किन्तु आँख को भले ही कागज दिखे , पर बुद्धि कहती है , यह कागज नहीं है, रूपये है, वैष्णव मूर्ति के दर्शन नहीं कर रहे है, भावना से प्रत्यक्ष परमात्मा के, श्री नारायण के माँ भगवती के दर्शन करते है.

अब बोलिए जय श्री राम. जय माता दी जी . जय जय माँ. जय माँ राज रानी .. जय माँ वैष्णो रानी. जय माँ दुर्गे..


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Sanjay Mehta








सोमवार, 24 सितंबर 2012

भगवान विष्णु का स्वप्न By Sanjay Mehta Ludhiana







भगवान विष्णु का स्वप्न

एक बार भगवान नारायण अपने वैकुंठलोक में सोये हुए थे. स्वप्न में वो क्या देखते है कि करोड़ो चन्द्रमाओ कि कन्तिवाले, त्रिशूल-डमरू-धारी, स्वर्णाभरण -भूषित, संजय-वन्दित , अणिमादि सिद्धिसेवित त्रिलोचन भगवान शिव प्रेम और आनंदातिरेक से उन्मत होकर उनके सामने नृत्य कर रहे है, उन्हें देखकर भगवान विष्णु हर्ष-गदगद से सहसा शैयापर उठकर बैठ गये और कुछ देर तक ध्यानस्थ बैठे रहे. उन्हें इस प्रकार बैठे देखर श्री लक्ष्मी जी उनसे पूछने लगी कि "भगवान! आपके इस प्रकार उठ बैठने का क्या कारण है?"
भगवान ने कुछ देर तक उनके इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया और आनंद में निमग्न हुए चुपचाप बैठे रहे. अंत में कुछ स्वस्थ होने पर वे गदगद-कंठ से इस प्रकार बोले - "हे देवि! मैंने अभी स्वप्न में भगवान श्री महेश्वर का दर्शन किया है, उनकी छबी ऍसी अपूर्व आनंदमय एवं मनोहर थी कि देखते ही बनती थी. मालूम होता है, शंकर ने मुझे स्मरण किया है. अहोभाग्य! चलो, कैलाश में चलकर हमलोग महादेव के दर्शन करते है .

यह कहकर दोनों कैलाश की और चल दिए. मुश्किल से आधी दूर ही गये होंगे की देखते है भगवान शंकर स्वयं गिरिजा के साथ उनकी और आ रहे है, अब भगवान के आनंद का क्या ठिकाना? मानो घर बैठे निधि मिल गई. पास आते ही दोनों परस्पर बड़े प्रेम से मिले. मानो प्रेम और आनंद का समुन्द्र उमड़ पड़ा. एक दुसरे को देखकर दोनों के नेत्रों से आन्दाश्रू बहने लगे और शरीर पुलकायमान हो गया. दोनों ही एक दुसरे से लिपटे हुए कुछ देर मुक्वत खड़े रहे. प्रश्नोतर होनेपर मालूम हुए की शंकर जी ने भी रात्रि में इसी प्रकार का स्वप्न देखा मानो विष्णु भगवान को वे उसी रूप में देख रहे है, जिस रूप में वे अब उनके सामने खड़े थे. दोनों के स्वप्न का वृतांत अवगत होने पर दोनों ही लगे एक दुसरे से अपने यहाँ लिवा ले जाने का आग्रह करने.. नारायण कहते वैकुण्ठ चलो और शम्भू कहते कैलाश की और प्रस्थान कीजिये. दोनों के आग्रह में इतना अलौकिक प्रेम था कि यह निर्णय करना कठिन हो गया कि कहाँ चला जाये?

इतने में ही क्या देखते है वीणा बजाते, हरिगुण गाते नारद जी कही से आ निकले. बस, फिर क्या था? लगे दोनों ही उनसे निर्णय कराने कि कहाँ चला जाये?

बेचारे नारद जी स्वयं परेशान थे उस अलौकिक मिलन को देखकर , वे तो स्वयं अपनी सुध-बुध भूल गये और लगे मस्त होकर दोनों का गुणगान करने. अब निर्णय कौन करे? अंत में यह तय हुई कि भगवती उमा जो कह दे वही ठीक है.

भगवती उमा पहले तो कुछ देर चुप रही, अंत में दोनों को लक्ष्य करके बोली -"हे नाथ! हे नारायण! आपलोगों के निश्छल, अनन्य एवम अलौकिक प्रेम को देखकर तो यही समझ में आता है कि आपके निवास-स्थान अलग-अलग नहीं है, जो कैलास है वही वैकुण्ठ है और जो वैकुण्ठ है वही कैलाश है, केवल नाम में ही भेद है. यही नहीं , मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि आपकी आत्मा भी एक ही है, केवल शरीर देखने में दो है. और तो और, मुझे तो अब यह स्पष्ट दिखने लगा ही आपके भार्याये भी एक ही है, दो नहीं. जो मै हु वही श्रीलक्ष्मी है और जो श्रीलक्ष्मी है वही मै हु.. केवल इतना ही नहीं, मेरी तो अब यह दृढ धारणा हो गई है कि आपलोगों में से एक के प्रति जो द्वेष करता है, वह मानो दुसरे के प्रति ही करता है, एक की जो पूजा करता है, वह स्वाभाविक ही दुसरे कि भी करता है और जो एक को अपूज्य मानता है वह दुसरे कि भी पूजा नहीं करता... मै तो यह समझती हु कि आप दोनों में जो भेद मानता है, उसका चिरकालतक घोर पतन होता है, मै देखती हु कि आप मुझे इस प्रसंग में अपना मध्यस्थ बनाकर मानो मेरी प्र्वच्चना कर रहे है, मुझे चक्कर में डाल रहे है, मुझे भुला रहे है. अब मेरी यह प्रार्थना है कि आपलोग दोनों ही अपने-अपने लोक को पधारिये .. श्रीविष्णु यह समझे कि हम शिवरूप में से वैकुण्ठ जा रहे है और महेश्वर यह माने कि हम विष्णुरूप से कैलाश गमन कर रहे है ..

इस उत्तर को सुनकर दोनों परम प्रसन्न हुए और भगवती उमा कि प्रशंसा करते हुए दोनों अपने अपने लोक को चले गये.

लौटकर जब विष्णु वैकुण्ठ पहुंचे तो श्री लक्ष्मी जी उनसे पूछने लगी कि - 'प्रभु! सबसे अधिक प्रिय आपको कौन है? इस पर भगवान बोले - 'प्रिय! मेरे प्रियतम केवल श्री शंकर है, देहधारियो को अपने देह कि भांति वे मुझे अकारण ही प्रिय है, एक बार मै और शंकर दोनों ही पृथ्वी पर घुमने निकले, मै अपने प्रियतम की खोज में इस आशय से निकला कि मेरी ही तरह जो अपने प्रियतम की खोज में देश-देशांतर में भटक रहा होगा, वही मुझे अकारण प्रिय होगा. थोड़ी देर के बाद ही मेरी श्री शंकर जी से भेंट हो गई. ज्यो ही हमलोगों की चार आँखे हुई कि हमलोग पुर्वजन्मअर्जित विद्या कि भांति एक दुसरे कि प्रति आक्रष्ट हो गये "वास्तव में मै ही जनार्दन हु. और मै ही महादेव हु, अलग-अलग दो घडो में रखे हुए जल कि भांति मुझमे और उनमे कोई अंतर नहीं है, शंकरजी के अतिरिक्त शिवकी अर्चा करनेवाला शिवभक्त भी मुझे अत्यंत प्रिय है, इसके विपरीत जो शिव कि पूजा नहीं करतेवे मुझे कदापि प्रिय नहीं हो सकते...
शिव-द्रोही वैष्णवों को और विष्णु-द्वेषी शैवोको इस प्रसंग पर ध्यान देना चाहिए..
अब बोलो जय माता दी जी . फिर से बोले जय माता दी. हर हर महादेव. जय जय श्री कृष्णा जय श्री नारायणा

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Sanjay मेहता









शनिवार, 22 सितंबर 2012

जय माँ शताक्षी By Sanjay Mehta Ludhiana







"जय माँ शताक्षी"

"वेदान्तके अध्यन से समझ में आनेवाली ब्रह्मस्वरूपनी देवी! तुम्हे बार बार नमस्कार है. अपनी माया से जगत को धारण करनेवाली तथा भक्तो के लिए कल्पवृक्ष एवं श्रदालु व्यक्तियों के कल्याणार्थ दिव्या विग्रह धारण करनेवाली देवी.. तुम्हे अनेक प्रणाम है . सदा तृप्त रहनेवाली अनुपम रूपों में सुशोभित भुवनेश्वरी! तुम्हे नमस्कार है. देवी तुमने हमारा संकट दूर करने के लिए सहस्त्रो नेत्रों से सम्पन्न अनुपम रूप धारण किया है. अतएव अब तुम "शताक्षी" इस नाम से विराजने की कृपा करो मा
भ्रमणशील जगत की एकमात्र कारण भगवती परमेश्वरी! शाकम्भरी! शतलोचने! तुम्हे अनेकश: नमस्कार है, सम्पूर्ण उपनिषदों से प्रंशासित तथा दुर्गम नामक दैत्य की संहारिणी एवं पंचकोश में रहनेवाली कल्याणस्वरूप्नी भगवती माहेश्वरी! तुम्हे नमस्कार है, मुनीश्वर शांतचित से जिनका ध्यान करते है तथा जिनका विग्रह ही प्रणव का अर्थ है, उन भगवती भुवनेश्वरी की हम उपासना करते है, अनंत कोटि ब्रेह्मंड़ो की जिनसे उत्पति हुई है तथा जो दिव्या विग्रह से सुशोभित है एवं जिन्होंने ब्रह्मा, विष्णु आदि को प्रकट किया है, उन भगवती भुवनेश्वरी के श्री चरणों में हम सर्वतोभाव से मस्तक झुकाते है, सबकी व्यवस्था करनेवाली माता शताक्षी दया से परिपूर्ण है, इनके सिवा कोई भी राजा-महाराजा ऐसा नहीं है, जिसे संकटग्रस्त हीन व्यक्तियों को देखर इतनी रुलाई आ सके.
जय माँ शताक्षी . जय जय माँ .. जय माँ राजरानी... जय माँ दुर्गे... जय माँ वैष्णो देवी. जय माता दी जी

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Sanjay Mehta








शुक्रवार, 21 सितंबर 2012

हनुमानजी को सिन्दूर चढाने कि परंपरा क्यों? By Sanjay Mehta Ludhiana







हनुमानजी को सिन्दूर चढाने कि परंपरा क्यों?

अदभुत रामायण में एक कथा का उल्लेख मिलता है, जिसमे मंगलवार कि सुबह जब हनुमानजी को भूख लगी, तो वे माता जानकी के पास कुछ कलेवा पाने की लिए पहुंचे . सीता माता की मांग में लगा सिन्दूर देखकर हनुमानजी ने उनसे आश्चर्यपूर्वक पूछा - "माता! मांग में आपने यह कौन सा लाल द्रव्य लगया है"?
इस पर सीता माता जी ने प्रस्न्न्तापूर्वक कहा - "पुत्र! यह सुहागिन स्त्रियों का प्रतीक, मंगल सूचक, सौभाग्यवर्द्धक सिन्दूर है. जो स्वामी के दीर्घायु के लिए जीवनपर्यत मांग में लगाया जाता है, इससे वे मुझ पर प्रसन्न रहते है"
हनुमानजी ने यह जानकार विचार किया कि जब अंगुली भर सिन्दूर लगाने से स्वामी कि आयु में वृद्धि होती है, तो फिर क्यों ना सारे शरीर पर इसे लगाकर अपने स्वामी भगवान श्रीराम को अजर-अमर कर दू. उन्होंने जैसा सोचा, वैसा ही कर दिखाया. अपने सारे शरीर पर सिन्दूर पोतकर भगवान श्रीराम कि सभा में पहुंचे... उन्हें इस प्रकार सिन्दूरी रंग में रंगा देखकर सभा में उपस्थित सभी लोग हँसे, यहाँ तक कि भगवान राम भी उन्हें देखकर मुस्कराए और बहुत प्रसन्न हुए. उनके सरल भाव पर मुग्ध होकर उन्हों ने यह घोषणा की कि जो मंगलवार के दिन मेरे अनन्य प्रिय हनुमान को तेल और सिन्दूर चढ़ाएगा , उन्हें मेरी प्रसन्नता प्राप्त होगी और उनकी समस्त मनोकामनाए पूर्ण होगी . इस पर माता जानकी के वचनों में हनुमानजी को और भी अधिक दृढ विश्वास हो गया.
कहा जाता है कि उसी समय से भगवान श्रीराम के प्रति हनुमानजी कि अनुपम स्वामिभक्ति को याद करने के लिए उनके सारे शरीर पर चमेली के तेल में घोलकर सिन्दूर लगाया जाता है. इसे चोला चढ़ाना भी कहते है .

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Sanjay Mehta








गुरुवार, 20 सितंबर 2012

गणेशजी को दूर्वा और मोदक चढाने का महत्त्व क्यों? By Sanjay Mehta Ludhiana









गणेशजी को दूर्वा और मोदक चढाने का महत्त्व क्यों?

भगवान गणेशजी को 3 या 5 गाँठ वाली दूर्वा (एक प्रकार की घास) अर्पण करने से वह शीघ्र प्रसन होते है. और भक्तो को मनोवांछित फल प्रदान करते है. इसलिए उन्हें दूर्वा चढ़ने का शास्त्रों में महत्त्व बताया गया है. इसके सम्बंध में पुराण में एक कथा का उल्लेख मिलता है -"एक समय पृथ्वी पर अनलासुर नामक राक्षस ने भयंकर उत्पात मचा रखा था. उसका अत्याचार पृथ्वी के साथ-2 स्वर्ग और पाताल तक फैलने लगा था. वह भगवद -भक्ति व् इश्वर आराधना करने वाले ऋषि-मुनियों और निर्दोष लोगो को जिन्दा निगल जाता था. देवराज इंद्र ने उससे कई बार युद्ध किया, लेकिन उन्हें हमेशा परस्त होना पड़ा, अनलासुर से त्रस्त होकर समस्त देवता भगवान शिव के पास गये, उन्होंने बतया कि उन्हें सिर्फ गणेश ही ख़त्म कर सकते है, क्युकि उनका पेट बड़ा है , इसलिए वे उसको पूरा निगल लेंगे. इस पर देवताओ ने गणेश कि स्तुति कर उन्हें प्रसन्न किया, गणेशजी ने उनलासुर का पीछा किया और उसे निगल गये, इससे उनके पेट में काफी जलन होने लगी. अनेक उपाए किये गये, लेकिन ज्वाला शांत ना हुई. जब कश्यप ऋषि को यह बात मालूम हुई तो वे तुरंत कैलाश गये और 21 दूर्वा एकत्रित कर एक गाँठ तैयार कर गणेश को खिलाई. जिसे उनके पेट कि ज्वाला तुरंत शांत हो गई..

गणेशजी को मोदक यानी लड्डू काफी प्रिय है, इनके बिना गणेशजी कि पूजा अधूरी ही मानी जाती है. गोस्वामी तुलसीदास ने विनय पत्रिका में कहा है .
गाइए गणपति जगबंदन । संकर सुवन भवानी नंदन ।।
सिद्धि-सजन गज विनायक । कृपा-सिन्धु सुंदर सब लायक ।।
मोदकप्रिय मुद् मंगलदाता ।। विद्या वारिधि बुद्धि विधाता ।।

इसमें भी उनकी मोदाकप्रियता प्रदर्शित होती है, महाराष्ट्र के भक्त आमतौर पर गणेशजी को मोदक चढाते है, उल्लेखनीय है कि मोदक मैदे के खोल में रवा, चीनी, मावे का मिश्रण कर बनाए जाते है. जबकि लड्डू मावे व् मोतीचूर के बनाए हुए भी उन्हें पसंद है. जो भक्त पूर्ण श्रद्धाभाव से गणेशजी को मोदक या लड्डुओं का भोग लगते है, उन पर वे शीघ्र प्रसन्न होकर इच्छापूर्ति करते है.
मोद यानी आनंद और 'क' का शाब्दिक अर्थ छोटा -सा भाग मानकर ही मोदक शब्द बना है, जिसका तात्पर्य हाथ में रखने मात्र से आनंद कि अनुभूति होना है, ऐसे प्रसाद को जब गणेशजी को चढ्या जाये, तो सुख कि अनुभूति होना स्वाभाविक है, एक दूसरी व्याख्या के अनुसार जैसे ज्ञान का प्रतीक मोडम मीठा होता है, वैसे ही ज्ञान का प्रसाद भी मीठा होता है
जो भगवान को दूर्वा चढ़ाता है, वह कुबेर के समान हो जाता है, जो लाजो (धान-लाई) चढ़ाता है, वह यशस्वी , मेधावी हो जाता है और जो एक हजार लड्डुओं का भोग गणेश भगवान को लगता है, वह मन - वांछित फल प्राप्त करता है
अब बोलिए जय गणपति भगवान की . जय बोलो माँ भवानी की. जय माँ राजरानी की. जय माँ दुर्गा . जय माँ वैष्णो रानी की.
जय माता दी जी
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Sanjay Mehta









बुधवार, 19 सितंबर 2012

सर्वप्रथम गणेश का ही पूजन क्यों?







सर्वप्रथम गणेश का ही पूजन क्यों?

हिन्दू धर्म में किसी भी शुभ कार्य का आरम्भ करने के पूर्व गणेश जी कि पूजा करना आवश्यक माना गया है. क्यों कि उन्हें विघ्नहर्ता व् रिद्धि - सिद्धि का स्वामी कहा जाता है. इनके स्मरण, ध्यान, जप, आराधना से कामनाओं कि पूर्ति होती है व् विघ्नों का विनाश होता है. वे शीघ्र प्रसन होने वाले बुद्धि के अधिष्ठाता और साक्षात प्रणव रूप है, प्रत्येक शुभ कार्य के पूर्व "श्री गणेशाय नम:" का उच्चारण कर उनकी स्तुति में यह मन्त्र बोला जाता है.

वक्र्तुण्ड् महाकाय कोटि सूर्य समप्रभ्:।
निर्विघ्न कुरु मे देव सर्व कायेर्षु सर्वदा ।।

पद्मपुराण के अनुसार :- सृष्टि के आरम्भ में जब यह प्रशन उठा कि प्रथम पूज्य किसे माना जाये, तो समस्त देवतागण ब्रह्माजी के पास पहुंचे . ब्रह्माजी ने कहा जो कोई सम्पूर्ण पृथ्वी कि परिक्रमा सबसे पहले कर लेगा, उसे ही प्रथम पूजा जायेगा. इस पर सभी देवतागण अपने - अपने वाहनों पर सवार होकर परिक्रमा हेतु चल पड़े. चुकी गणेशजी का वाहन चूहा है और उनका शरीर स्थूल, तो ऐसे में वे परिक्रमा कैसे कर पाते? इस समस्या को सुलझाया देवरिषि नारद जी ने , उनके अनुसार गणेश जी ने भूमि पर "राम" नाम लिखकर उनकी सात परिक्रमा कि और ब्रह्माजी के पास सबसे पहले पहुँच गये. तब ब्रह्माजी ने उन्हें प्रथम पुज्य बताया.. क्युकि "राम" नाम साक्षात श्रीराम का स्वरूप है और श्रीराम में ही सम्पूर्ण ब्रह्मांड निहित है. हालाकि किसी किसी पुराण में उन्हों ने अपने माता -पिता की परिक्रमा की यह बतया है. राम-शिव दोनों ही सम्पूर्ण ब्रह्मांड है ... ब्रह्माजी ने कहा माता -पिता की परिक्रमा "राम" नाम की परिक्रमा से तीनो लोको की परिक्रमा का पुण्य तुम्हे मिल गया, जो पृथ्वी की परिक्रमा से भी बड़ा है. इसलिए जो मनुष्य किसी कार्य के शुभारंभ से पहले तुम्हारा पूजन करेगा, उसे कोई बाधा नहीं आएगी. बस, तभी से गणेश जी अग्रपूज्य हो गए...

एक बार देवताओं ने गोमती के तट पर यज्ञ प्रारंभ किया तो उसमे अनेक विघन पड़ने लगे. यज्ञ सम्पन्न नहीं हो सका. उदास होकर देवताओ ने ब्रह्मा और विष्णु से इसका कारण पूछा, दयामय चतुरानन ने पता लगाकर बतया की इस यज्ञ में श्री गणेशजी विघन उपस्थित कर रहे है, यदि आप लोग विनायक को प्रसन्न कर ले , तब यज्ञ पूर्ण हो जायेगा. विधाता की सलाह से देवताओं ने स्नान कर श्रद्धा , भक्ति पूर्वक गणेशजी का पूजन किया. विघनराज गणेशजी की कृपा से यज्ञ निर्विघन सम्पन्न हुआ.. उल्लेखनीय है की महादेव जी ने भी त्रिपुर वध के समय पहले गणेशजी का पूजन किया था..
अब बोलिए जय गणेश काटो कलेश. जय माता दी जी


गणेशजी के अनेक नाम हैं लेकिन ये 12 नाम प्रमुख हैं :-
1. सुमुख, 2. एकदंत, 3. कपिल, 4. गजकर्णक, 5. लंबोदर, 6. विकट, 7. विघ्न-नाश, 8. विनायक, 9. धूम्रकेतु, 10. गणाध्यक्ष, 11. भालचंद्र, 12. गजानन।
उपरोक्त द्वादश नाम नारद पुरान मे पहली बार गणेश के द्वादश नामावलि मे आया है | विद्यारम्भ तथ विवाह के पूजन के प्रथम मे इन नामो से गणपति के अराधना का विधान है |

*पिता - भगवान शिव,
*माता - भगवती पार्वती,
*भाई - श्री कार्तिकेय,
*पत्नी - दो. 1. रिद्धि, 2. सिद्धि, (दक्षिण भारतीय संस्कृति में गणेशजी ब्रह्मचारी रूप में दर्शाये गये हैं)
*पुत्र - दो. 1. शुभ, 2. लाभ,
*प्रिय भोग (मिष्ठान्न) - मोदक, लड्डू,
*प्रिय पुष्प - लाल रंग के,
*प्रिय वस्तु - दुर्वा (दूब), शमी-पत्र,
*अधिपति - जल तत्व के,
*प्रमुख अस्त्र - पाश, अंकुश.

गणेश शिवजी और पार्वती के पुत्र हैं। उनका वाहन मूषक है। गणों के स्वामी होने के कारण उनका एक नाम गणपति भी है। ज्योतिष में इनको केतु का देवता माना जाता है, और जो भी संसार के साधन हैं, उनके स्वामी श्री गणेशजी हैं। हाथी जैसा सिर होने के कारण उन्हें गजानन भी कहते हैं। गणेशजी का नाम हिन्दू शास्त्रो के अनुसार किसी भी कार्य के लिये पहले पूज्य है। ईसलिए इन्हें आदिपूज्य भी कहते है। गणेश कि उपसना करने वाला सम्प्रदाय गाणपतय कहलाते है|

गणपति आदिदेव हैं, जिन्होंने हर युग में अलग अवतार लिया। उनकी शारीरिक संरचना में भी विशिष्ट व गहरा अर्थ निहित है। शिवमानस पूजा में श्री गणेश को प्रवण (ॐ) कहा गया है। इस एकाक्षर ब्रह्म में ऊपर वाला भाग गणेश का मस्तक, नीचे का भाग उदर, चंद्रबिंदु लड्डू और मात्रा सूँड है। चारों दिशाओं में सर्वव्यापकता की प्रतीक उनकी चार भुजाएँ हैं। वे लंबोदर हैं क्योंकि समस्त चराचर सृष्टि उनके उदर में विचरती है। बड़े कान अधिक ग्राह्यशक्ति व छोटी-पैनी आँखें सूक्ष्म-तीक्ष्ण दृष्टि की सूचक हैं। उनकी लंबी नाक (सूंड) महाबुद्धित्व का प्रतीक है।

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Sanjay Mehta








मंगलवार, 18 सितंबर 2012

रावण का मंदोदरी को समझाना By Sanjay Mehta Ludhiana









इन्द्रजीत कि मृत्यु होने से रावण पुत्र-वियोग में रोने लगा. उस समय मन्दोदरी रावण को समझाने लगी कि मेरा बड़ा पुत्र चला गया. परन्तु अब भी आप नहीं मानते. श्रीराम परमात्मा है. उनके साथ आप विरोध करना छोड़ दो..
रावण ने कहा - मै जानता हु कि राम परमात्मा है.
मंदोदरी ने कहा. राम परमात्मा है, यह आप जानते हो, फिर वैर क्यों करते हो?
रावण ने कहा - मैंने विचार किया है कि मै अकेला बैठकर रामजी का ध्यान करू और प्रेम से स्मरण करू तो मुझे अकेले को ही मुक्ति मिलेगी. परन्तु मै यदि रामजी के साथ वैर विरोध करता हु तो मेरे सम्पूर्ण वंश का कल्याण होता है. इन राक्षसों का आहार तामसी है. ये भक्ति कर सके इस योग्य नहीं. ध्यान, तप , जप कर सके इस लायक नहीं है, परन्तु रामजी के साथ मै विरोध करता हु तो यह सब राम-बाण-गंगा में स्नान करके, अन्तकाल में रामजी के दर्शन करते करते प्राण छोड़ेगे और इस प्रकार मेरे समस्त राक्षस मुक्ति को प्राप्त होन्गे.
रावण कोई बहुत बड़ा मुर्ख नहीं था. वह प्रचण्ड विद्वान था. उसने मंदोदरी से कहा - मैंने भगवान राम को साक्षात परमात्मा हरि जानकार ही यह निश्चेय किया था कि मै विरोध - बुद्धि से ही भगवान को पाउँगा. क्युकि भक्ति के द्वारा भगवान शीघ्र प्रसन्न नहीं हो सकते और उससे सिर्फ मेरी ही मुक्ति होती.
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Sanjay Mehta








सोमवार, 17 सितंबर 2012

हरि-हर By Sanjay Mehta Ludhiana









श्री एकनाथ महाराज ने "भावार्थ रामायण" में हरि-हर को अभेद बताया है. सत्व, रज और तम - इन तीनो गुणों के तीन मालिक देव माने गुए है, सत्वगुण का रंग श्वेत है. रजोगुण का रंग लाल है, तमोगुण का रंग काला है. विष्णु भगवान सत्वगुण के मालिक है, इसलिए उनका रंग गोरा होना चाहिए, परन्तु है श्याम.. शिवजी का तमोगुण के मालिक है, इसलिए उनका श्यामवर्ण होना चाहिए , परन्तु है सफ़ेद. शिवजी गोरे और विष्णुजी काले-- ऐसा क्यों हुआ? एकनाथ महाराज जी कहते है कि विष्णु जी गोरे ही थी और शिवजी श्याम ही थे. परन्तु शिवजी सब दिन नारायण-राम राम राम राम का ध्यान करते है, वे नारायण रंग के बन गये और वे गौरे हो गये. नारायण शिवजी का ध्यान करते है उनको शिवजी का रंग आ गया और वे श्याम हो गये.
ध्यान करनेवाले में , वह जिसका ध्यान करता है उसका स्वरूप, आकृति और स्वभाव आ जाता है, शिवजी और विष्णु परस्पर एक -दुसरे का ध्यान करते है, इसलिए दोनों में अभेद है. शिवजी और विष्णु जी परस्पर प्रेम रखते है परन्तु उनके भक्त परस्पर प्रेम रखते नहीं - हरि-हर में भेद रखकर भक्ति को बिगाड़ो नहीं.. हरि हर एक ही है .

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शनिवार, 15 सितंबर 2012

रामेश्वर का अर्थ By Sanjay Mehta Ludhiana







रामेश्वर का अर्थ :-

श्रीरामचन्द्र जी नित्य नियम से भगवान शंकर कि पूजा करते थे.. समुन्द्र किनारे कि दिव्या भूमि देखकर श्रीरामचन्द्र जी को आनंद हुआ और उन्हों ने सकल्प किया कि इस स्थान पर मै शिवजी कि स्थापना करूँगा.. परन्तु वहां कोई शिवलिंग मिला नहीं. हनुमानजी को शिवलिंग लाने कि लिए काशी भेजा.. हनुमान जी को लौटने में विलम्ब हो गया.. तब तक रघुनाथ जी ने रेती का शिवलिंग बनाकर वहां रामेश्वर कि स्थापना कर दी.. अनेक ऋषि वहां आये थे. श्रीराम शिवजी की पूजा करने लगे. भगवान शंकर को आनंद हुआ.. लिंग में से शिव पार्वती जी प्रकट हुए

ऋषियो ने रामजी से पूछा -- महाराज! रामेश्वर का अर्थ समझाइये ।।
श्री रघुनाथ जी ने कहा-- रामस्य इश्वर: य: स: रामेश्वर:।। (जो राम के इश्वर है, उन्हें रामेश्वर कहते है, मै शिवजी का सेवक हु. शिवजी मेरे स्वामी है. )
तब शिवजी ने कहा - रामेश्वर का अर्थ ऐसा नहीं.. मै राम का इश्वर नहीं. मै तो राम का सेवक हु. रामेश्वर का अर्थ तो यह है
राम: इश्वरो यस्य स: रामेश्वर:।
राम जिसके स्वामी है, उनको रामेश्वर कहते है, मै रामदास हु, मै सब दिन राम-नाम जा जप किया करता हु. रामजी का ही ध्यान धर्ता हु. शिवजी कहते है - राम जिसके स्वामी है, उनको रामेश्वर कहते है और रामजी कहते है - रामके जो स्वामी है, उन्हें रामेश्वर कहते है, दोनों में मूल रूप झगड़ा खड़ा हो गया. भगवान शंकर कहते है कि तुम मेरे स्वामी हो, मै तुम्हारा सेवक हु. रामजी कहते है कि नहीं. नहीं ऐसा नहीं... तुम मेरे स्वामी हो, मै तुम्हारा सेवक हु..
ऋषियो ने पीछे निर्णय किया कि तुम दोनों एक ही हो इसलिए ऐसा कहते है .. शिव और राम दोनों एक ही है, हरि - हर में भेद रखने वाले का कल्याण नहीं होता, रामायण का यह दिव्या सिद्धांत है.
भागवत में भी अनेक बार इस सिद्धांत का वर्णन किया गया है. कितने ही वैष्णवों को शिवजी की पूजा करने में संकोच होता है, अरे वैष्णवों के गुरु तो शिवजी है.शिवजी कि पूजा से श्रीकृष्ण-श्रीराम क्या नाराज हो जायेगे... उन्हों ने तो कहा है शिव और हममे जो भेद रखता है वह नरकगामी बनता है .
शंकर प्रिय मम द्रोही, शिव द्रोही मम दास
ते नर करिहहि कल्प भरि, घोर नरक महु वास


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Sanjay Mehta








शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

श्री राम कथा By Sanjay Mehta Ludhiana










रामजी ने तो एक अहल्या का उद्धार किया, परन्तु आज हजारों वर्ष हो गये रामनाम से अनेक जीवो का उद्धार हुआ है. रामजी विराजते थे तब तो बहुत थोड़े जीवो का प्रभु ने कल्याण किया है, जब कि आज प्रत्यक्ष श्रीराम नहीं है, परन्तु राम-नाम का आश्रय ग्रहण करने से तो घने जीवो का जीवन सुधर रहा है
एक बार राजमहल में एक नौकर काम करता था. उसकी नजर राजकन्या के ऊपर पड़ गई, राजकन्या बहुत सुंदर थी . एक बार ही राज-कन्या को देखने के बाद वह नौकर अपनी मन कि शांति रख नहीं सका. उसका मन चंचल हो गया. पुरे दिन वह राजकन्या का ही चिंतन करने लगा. उसको खाना ही अच्छा नहीं लगने लगा. रात को नींद नहीं आती थी, उसकी पत्नी रानी कि दासी थी. वह रानी कि ख़ास सेवा करती थी, रानी का उसके उपर स्नेह भी था..

दासी पतिव्रता थी. वह पतिदेव को दुखी देखर बारम्बार पूछती कि तुम मुझे इस समय उदास क्यों लग रहे हो? पति ने कहा -- मेरा दुःख दूर कर सके ऐसा कोई नहीं.. पत्नी ने पूछा --- ऐसा तुमको कौन सा दुःख है ..

पति ने कहा -राजकन्या को मैंने जब से देखा है, तबी से मन मन मेरे हाथ मे नहीं रहा. किसी भी प्रकार से राजकन्या मुझे मिले तो ही मे सुखी हो सकूँगा. परन्तु यह सम्भव नहीं. पत्नी को दया आई. उसने कहा - मै युक्ति करती हु.
.
दासी ने रानी की भारी सेवा करनी आरम्भ कर दी. सेवा में वशीकरण होता है. एक दिन रानी ने दासी से पूछा - आज तू क्यों उदास लग रही है ?
दासी ने कहा - मै क्या कहू? पति का सुख यही मेरा सुख है. पति का दुःख ही मेरा दुःख है.. मेरे पतिदेव दुखी है
रानी ने पूछा - दुःख का कारण क्या है? दासी ने कहा - महारानी जी! कारण कहने में मुझे बहुत दुःख होता है, संकोच होता है... राजकन्या को जब से देखा है तब से उनका मन चंचल हो गया है. उनकी ऍसी इच्छा है की राजकन्या उनको मिल जाये

रानी ने सत्संग किया हुआ था. उसने विचार करके कहा - तेरे पति को मै अपनी कन्या देने को तैयार हु.. परन्तु तू उससे एक काम करने को कहना .. गाव के बाहर बगीचे में बैठकर वह नकली साधू का वेष धारण करे. साधू बनकर वहां. श्री राम - श्री राम का जप करे. . आँख अघाड़े नहीं. आँख बंद करके ही जप करे. मै राजमहल में से जो कुछ भेजू उसी को खाना है, दूसरा कुछ नहीं... बोलना भी नहीं, किसी पर दृष्टि डालनी नहीं.. छह महिना तक इस प्रकार अनुष्ठान करे. तो मै अपनी कन्या उसको देने को तैयार हु...

द्रष्टान्त को अधिक लम्बाने की आवश्यकता नहीं हुआ करती . वह नकली साधू बना. गाव के बाहर बगीचे मै बैठकर रामनाम का जप करने लगा. रानी ने इस प्रकार व्यवस्था की जिससे राजमहल से उसे बहुत सादा भोजन दिया जाने लगा. भक्ति में अन्न्दोश विघ्नकारक होता है, राजसी तामसी अन्न खानेवाला बराबर भक्ति नहीं कर सकता. और कदाचित वह करे भी तो उसे भक्ति में आनंद आता नहीं. जिसका भोजन अत्यंत सादा है, सात्विक है, वही भक्ति कर सकता है, रानी ने विचार किया हुआ था की छह महीने तक सादा , सात्विक, पवित्र अन्न खाए और रामनाम का जप करे तो आज जो इसकी बुद्धि बिगड़ी हुई है, वह छह महीने में सुधर जाएगी

नकली साधू होकर, आँख बंद रखकर , राजकन्या के लिए वह रामनाम का जप करता था, रामनाम का निरंतर जप करने से इसको परमात्मा का थोडा प्रकाश दिखने लगा था. दो महिना व्यतीत हुए, चार महिना व्यतीत हुए... धीरे धीरे उसका मन शुद्ध होने लगा. पीछे तो मन इतना अधिक शुद्ध हो गया की राज्य-कन्या के बारे में इसको जो मोह हुआ था वह अब छुट गया...
अन्नं से मन बनता है, अन्नमय सौम्य मन:! पेट में जो अन्न जाता है, उसके तीन भाग होते है.. अन्न का स्थूल भाग मलरूप से बाहर आता है, अन्न के मध्य भाग से रुधिर और मांस उत्पन्न होता है.. अन्न के सूक्षम भाग से मन बुद्धि का संस्कार बनता है, जिसको चरित्र पर तुमको पूर्ण विश्वास नहीं उसे अपनी रसोई में मत आने दो. कदाचित रसोईघर में आ भी जावे तो उसको अन्न-जल को छूने ना दो...
पूर्व साधू ने छह महीने तक नियम से सादा भोजन किया.. आँख बंद रख कर नकली साधू होकर रामनाम का जप किया, छह महीने के उपरान्त वह सच्चा साधू बन गया. उसके हृदय और स्वभाव का परिवर्तन हो गया. रानी राजकन्या को लेकर वहां आई. उसने कहा की महाराज... अब आँख खोलिए.. मै अपनी कन्या आपको देने आई हु.. वह व्याक्ति ने कहा... अब मुझको देखने की इच्छा होती नहीं... अब तो मुझे हरेक मे राम श्री राम ही नजर आते है ... किसी सुंदर राजकुमार के साथ इसका विवाह कर दो. मै इसको प्रणाम करता हु. मुझसे भूल हुई थी...
अब बोलिए जय श्री राम. जय माँ जानकी. जय माता दी जी. जय माँ राज रानी. जय माँ दुर्गे. जय माँ वैष्णो रानी


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गुरुवार, 13 सितंबर 2012

गोवा के दो महानुभाव और ऋण मुक्तता (साईं बाबा कथा) By Sanjay Mehta Ludhiana







गोवा के दो महानुभाव और ऋण मुक्तता (साईं बाबा कथा)

एक समय गोवा से दो महानुभाव श्रीसाई बाबा के दर्शनार्थ शिर्डी आये . उन्होंने आकर उन्हें नमस्कार किया. यद्यपि वे दोनों एक साथ ही आये थे, फिर भी बाबा ने केवल एक ही व्यक्ति से पन्द्रह रूपये दक्षिणा मांगी, जो उन्हें आदरसहित दे दी गई. दूसरा व्याक्ति भी उन्हें सहर्ष ३५ रुपए दक्षिणा देने लगा तो उन्होंने उसकी दक्षिणा लेना अस्वीकार कर दिया. लोगो को बड़ा आश्चर्य हुआ. उस समय शामा भी वहां उपस्थित थे. उन्होंने कहा कि "देवा! यह क्या ये दोनों एक साथ ही तो आये है. इनमे से एक कि दक्षिणा तो आप स्वीकार करते है और दूसरा जो अपनी इच्छा से भेंट दे रहा है , उसे अस्वीकृत कर रहे है? यह भेद क्यों? " तब बाबा ने उत्तर दिया कि "शामा! तुम नादान हो.. मै किसी से कभी कुछ नहीं लेता. यह तो मस्जिद माई ही अपना ऋण मांगती है और इसलिए देने वाला अपना ऋण चुकता कर मुक्त हो जाता है.. क्या मेरे घर, सम्पति या बाल-बच्चे है, जिनके लिए मुझे चिंता हो? मुझे तो किसी वास्तु कि आवश्कता नहीं है. मै तो सदा स्वतंत्र हु, ऋण, शत्रुता तथा हत्या इन सबका प्रायश्चित अवश्य करना पड़ता है और इनसे किसी प्रकार भी छुटकारा सम्भव नहीं है. तब बाबा ने अपने विशेष ढंग से इस प्रकार कहा.....
"अपने जीवन के शुरआती दिनों में यह महाशय निर्धन थे. इन्होने इश्वर से प्रतिज्ञा कि थी कि यदि मुझे नौकरी मिल गई तो मै एक माह का वेतन तुम्हे अर्पण करूँगा... इन्हें १५ रुपए माहवार कि एक नौकरी मिल गई. फिर उत्तरोतर उन्नति होते-होते ४५ , ६०,९०,२०० और अंत में ७०० रूपये तम मासिक वेतन हो गया. परन्तु समृद्धि पाकर यह अपना वचन भूल गये और उसे पूरा ना कर सके. अब अपने शुभ कर्मो के प्रभाव से इन्हें यहाँ तक पहुचने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है. अत: मैंने इनसे पन्द्रह रूपये ही दक्षिणा मांगी, जो इनके पहले माह की पगार थी"
अब बोलिए जय साईं राम. फिर से बोलिए जय साईं राम. जय माता दी जी
sai sai sai sai... Baba sai.. sai sai..
Bolo Manse
sumiro sai sai sai....... sai sai sai
Kirtan sai sai sai... poojan sai sai sai
Andar sai sai sai... bhahar sai sai sai
Jeevan sai sai sai... yatra sai sai sai
Bhakti sai sai sai... shakti sai sai sai

Tripti sai sai sai... kukti sai sai sai
Shanti sai sai sai... Om sai sai sai
Daya sai sai sai... om sai sai sai
Pridvi sai sai sai... amber sai sai sai

om................. Sai sai sai sai...Baba..

Chanda sai sai sai... suraj sai sai sai
Purab sai sai sai... paschim sai sai sai
Uttar sai sai sai... dakshin sai sai sai
janma sai sai sai... moksha sai sai sai
Dharma sai sai sai... karma sai sai sai
Dhyan sai sai sai... Gyan sai sai sai
Arpan sai sai sai... dhaan sai sai sai
Atma sai sai sai... [?] sai sai sai
Anand sai sai sai... vaibhav sai sai sai
Vrudhi sai sai sai... sidhi sai sai sai
Nanak sai sai sai... Govind sai sai sai

Sai sai sai sai.... Baba sai sai sai ....
Jai Sainath....

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Sanjay Mehta








बुधवार, 12 सितंबर 2012

विभीषण जी का अपमान By Sanjay Mehta Ludhiana








रावण ने विभीषण का अपमान किया, विभीषण ने वन्दन किया तब रावण ने उसको लात मारी.. जिस घर में संत का अपमान होता है, उस घर का जल्दी विनाश होता है. रावण की लंका में संत विभीषण विराजता था. विभीषण का पुण्य रावण का रक्षण करता था. प्रत्येक घर में एक -एक पुण्यात्मा , दैवी जीव होता है. उसके पुण्य प्रताप से वह घर सुखी होता है. उसकी बिदायगी होने से सभी दुखी हो जाते है.
भागवत में कथा आती है. दुर्योधन ने विधुरजी का अपमान किया, दुर्योधन ने विदुरजी से कहा - तू दासीपुत्र है, मेरे घर का अन्न खाकर पड्डा जैसा पुष्ट हुआ है और मेरी निंदा करता है. मेरे घर का खाकर मेरे विरुद्ध काम करता है. दुर्योधन ने नौकरों को हुकम दिया की इस विदुर को धक्का मारकर बाहर निकाल दो. विधुर जी ने विचार किया की दुर्योधन के नौकर मुझे धक्का मारेंगे तो उनको पाप लगेगा, मै ही सभा छोड़कर चला जाऊ. विधुर जी के चले जाने से कौरवो का नाश हुआ, रावण की भी बुद्धि बिगड़ गई थी ... उसका विनाश -काल समीप आ गया.
विभीषण ने लंका छोड़ दी, विभीषण जी ने जिस समय लंका में से गये उसी क्षण सभी राक्षस आयु-हीन हो गये. साधू-पुरष का अपमान सर्वनाश करता है. विभीषण जी श्रीराम जी के पास आकाशमार्ग से गये. उस समय सम्पूर्ण रस्ते में वे श्री राम जी के चरणों का स्मरण करते रहे.... तुम घर से मंदिर के दर्शन करने जाओ, उस समय किसी का मकान आदि मत देखो , किसी का मुख देखने की इच्छा मत रखो. घर से मंदिर जाओ तब तक मार्ग में भगवत-स्मरण करते चलो..
अब बोलिए जय माता दी. फिर से बोलिए जय माता दी. जय माँ राज रानी, जय माँ दुर्गे. जय माँ वैष्णो रानी . जय जय माँ

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Sanjay Mehta








मंगलवार, 11 सितंबर 2012

शूर्पनखा By Sanjay Mehta Ludhiana









रामायण में लिखा है कि शूर्पनखा को जवाब देने के लिए जब श्री रामचन्द्र जी उसके साथ बात करते थे, तब प्रभु कि नजर तो श्री सीता जी पर ही रहती थी. रामजी शूर्पनखा के साथ जब बोलते थे, तब वे शूर्पनखा पर दृष्टि नहीं डालते थे. वासना-राक्षसी आँख से अंदर घुस जाती है

श्री रामचन्द्र जी , श्री सीताजी पर नजर रखकर शूर्पनखा को उत्तर देने लगे. शूर्पनखा पर नजर नहीं डाली. रामायण कि शूर्पनखा और भागवत कि पूतना एक ही है. पूतना भी वासना है, पूतना आती है तब कन्हैया छह दिन के थे.. अभी राधा जी नहीं आयी थी. इसलिए नजर कोने में रखते थे. इसलिए कन्हैया आँख मींच लेते थे... रामावतार में तो सीताजी साथ थे. इसी से श्रे सीताजी पर नजर रखकर , शूर्पनखा नजर नहीं डाली
भगवान बोध देते है कि जिसके मन में पाप भरा है, उसपर मे दृष्टि नहीं डालता, उसको सामने से मै नहीं देखता, जिसका मन मैला है, उसको सामने से भगवान देखते नहीं.. बाहर का श्रृंगार प्रभु देखते नहीं, परमात्मा तो अंदर का सूक्ष्म शरीर-मन का श्रृंगार देखते है, स्थूल शरीर का विचार करे, वह जीव तथा सूक्ष्म शरीर का विचार करे वह इश्वर..
जय श्री राम. जय माँ दुर्गे. जय माँ कालिके. जय जय माँ. जय माता दी जी
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श्रीराम श्रीराम श्रीराम By Sanjay Mehta Ludhiana








राम नाम से अनेको कि बुद्धि सुधरती है, दुर्बुद्धि ही राक्षसी है, रामचन्द्रजी ने अहल्याका उद्धार किया इसमें क्या आश्चर्य है? राम-नाम अनेक जीवों कि दुर्बुद्धि सुधारता है. रामजी कि तुलना में भी रामनाम कि महिमा विशेष है ... श्रीराम नाम के साथ प्रीति करोगे तो पाप छुटेगा. श्री राम-नाम के साथ प्रीति करोगे तो मन का मैल धुलेगा. एक पैसा भी खर्च नहीं है. 'श्रीराम श्रीराम श्रीराम ' जप करो. तुम्हारा कल्याण होगा. तुम खूब जप करोगे तो तुमको ऐसा अनुभव होगा कि ठाकुरजी मेरे साथ है. नाम में से रूप प्रगट होता है. परमात्मा के जिस नाम का तुम सतत जप करोगे , प्रभु का वही स्वरूप तुम्हारे साथ रहेगा. नाम ही रूप को प्रगट करता है.
अब बोलिए जय श्री राम. जय माँ जानकी. जय माँ दुर्गे. जय माँ राजरानी . जय माँ वैष्णो रानी , जय माता दी जी

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सोमवार, 10 सितंबर 2012

जपहु जाई संकर सत नामा By Sanjay Mehta Ludhiana








जपहु जाई संकर सत नामा

श्री रामचरितमानस में यह कथा आयी है कि देवर्षि नारदजी को कामपर विजय करने से गर्व हो गया था. और वे शंकर जी को इसलिए हेय समझने लगे कि उन्होंने कामदेव को क्रोध से जला दिया, इसलिए वे क्रोधी तो ही ही, किन्तु मै काम और क्रोध दोनों से उपर उठा हुआ हु. पर मूल बात यह थी कि जहाँ नारदजी ने तपस्या की थी, शंकर जी ने उस तप:स्थली को कामप्रभाव से शुन्य होने का वर दे दिया था और नारदजी ने जब शंकर जी से यह बात कह डाली, तब भगवान शंकर ने उन्हें इस बात को विष्णु भगवान को कहने से रोका. इस पर नारदजी ने सोचा के ये मेरे महत्त्व को नष्ट करना चाहते है. अत: यह बात उन्हों ने भगवान विष्णु से कह डाली. भगवान विष्णु ने उनके कल्याण के लिए अपनी माया से श्रीमतिपुरी नाम कि एक नगरी खड़ी कर दी, जहाँ विश्वमोहिनी के आकर्षण में नारदजी भी स्वयंवर में पधारे, पर साक्षात भगवान विष्णु ने वहां जाकर विश्वमोहिनी से विवाह कर लीया, यह सब देखकर नारदजी को बड़ा क्रोध आया. काम के वश में तो वे पहले ही हो चके थे. अब क्रोध में आकर उन्होंने भगवान विष्णु को अनेक अपशब्द कहे और स्त्री-वियोग में विक्षिप्त सा होने का भी शाप दे दिया, तब भगवान ने अपनी माया दूर कर दी और विश्वमोहिनी के साथ लक्ष्मी भी लुप्त हो गई. तब नारदजी की बुद्धि भी शुद्ध और शांत हो गयी. उन्हें सारी बीती बाते ध्यान में आ गई. वे अत्यंत सभीत होकर भगवान विष्णु के चरणों में गिर पड़े और प्रार्थना करने लगे कि भगवान मेरा शाप मिथ्या हो जाये और मेरे पापो कि सीमा नहीं रही. क्योकि मैंने आपको अनेक दुर्वचन कहे
इस पर भगवान विष्णु ने कहा कि शिवजी मेरे सर्वाधिक प्रिय है, वे जिस पर कृपा नहीं करते है उसे मेरी भक्ति प्राप्त नहीं होती. अत: आप शिवशतनाम का जप कीजिये , इससे आपके सब दोष-पाप मिट जायेंगे और पूर्ण ज्ञान -वैराग्य तथा भक्ति की राशी सदा के लिए आपके हृदय में स्थित हो जाएगी
तब भगवान विष्णु ने अपने भगत नारद जी के श्राप को पूरा करने के लिए धरती पर श्री राम जी का अवतार लिए और माँ सीता के वियोग में श्राप को पूरा किया.

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शनिवार, 8 सितंबर 2012

बासी जल, फुल का पूजा में निषेध By Sanjay Mehta Ludhiana









बासी जल, फुल का पूजा में निषेध

जो फुल , पत्ते और जल बासी हो गये हो, उन्हें देवताओं पर ना चढ़ाये , किन्तु तुलसीदल और गंगाजल बासी नहीं होते. तीर्थो का जल भी बासी नहीं होता. वस्त्र यज्ञोपवित और आभूषण में भी निर्माल्य का दोष नहीं आता. माली के घर में रखे हुए फूलो में बासी-दोष नहीं आता. मणि, रत्न, स्वर्ण, वस्त्र आदि से बनाये गये फुल बासी नहीं होते. इने प्रोक्षण कर चढ़ाना चाहिए.
नारदजी ने 'मानस ' (मन के द्वारा भावित) फुल को सबसे श्रेष्ठ माना है. उन्होंने देवराज इंद्र को बतलाया है कि हजारो-करोड़ो बाह्म फूलो को चढ़ाकर जो फल प्राप्त किया जा सकता है, वह केवल एक मानस-फुल चढाने से प्राप्त हो जाता है. इससे मानस-पुष्प ही उत्तम पुष्प है, बाह्म पुष्प तो निर्माल्य ही होते है, मानस-पुष्प बासी आदि कोई दोष नहीं होता . इसलिए पूजा करते समय मन से भी गढ़कर फुल चढाने का अदभुत आनंद अवश्य प्राप्त करे.

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Sanjay Mehta









शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

भगवान शंकर आशुतोष शीघ्र प्रसन्न होते है By Sanjay Mehta Ludhiana







भगवान शंकर आशुतोष शीघ्र प्रसन्न होते है


भगवान शंकर से वरदान मांगना हो तो भक्त नरसीजी कि तरह मांगना चाहिए, नहीं तो ठगे जायेंगे. जब नरसीजी को भगवान शंकर ने दर्शन दिए और उनसे वरदान मांगने के लिए कहा , तब नरसीजी ने कहा कि जो चीज आपको सबसे अधिक प्रिय लगती है, वही दीजिये. भगवान शंकर ने कहा कि मेरे को कृष्ण सबसे अधिक प्रिय लगते है, अत: मै तुम्हे उनके ही पास ले चलता हु. ऐसा कहकर भगवान शंकर उनको गोलोक ले गये. तात्पर्य है कि शंकर से वरदान मांगने में अपनी बुद्धि नहीं लगानी चाहिए.
शंकर कि प्रसन्नता के लिए साधक प्रितिदीन आधी रात को (ग्यारह से दो बजे के बीच) इशानकों (उत्तर-पूर्व) कि तरफ मुख करने 'ॐ नम: शिवाय' मन्त्र कि एक सौ बीस माला जप करे. यदि गंगाजी का तट हो तो अपने चरण उनके बहते हुए जल में डालकर जप करना अधिक उत्तम है . इस तरह छ: मास करने से भगवान शंकर प्रसन्न हो जाते है और साधक को दर्शन, मुक्ति, ज्ञान दे देते है
अब बोलोइए भगवान शंकर की जय. जय मेरी माँ राज रानी की. जय मेरी माँ दुर्गे जय माँ वैष्णो रानी. जय माता दी जी

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गुरुवार, 6 सितंबर 2012

श्री साईं बाबा का वैशिष्ट्य : By Sanjay Mehta Ludhiana







श्री साईं बाबा का वैशिष्ट्य :

ऐसे संत अनेक है जो घर त्याग कर जंगल कि गुफाओ या झोपड़ियों में एकांत वास करते हुए अपनी मुक्ति या मोक्ष - प्राप्त का प्रयत्न करते रहते है. वे दूसरों कि किंचित मात्र भी अपेक्षा ना कर सदा ध्यानस्थ रहते है. श्री साईं बाबा इस प्रकृति के न थे. यद्यपि उनके कोई घर द्वार, स्त्री और संतान, समीपी या दूर के सम्बन्धी न थे, फिर भी वे संसार में ही रहते थे. वे केवल चार-पांच घरों से भिक्षा लेकर सदा नीमवृक्ष के नीचे निवास करते थे समस्त सांसारिक व्यवहार करते थे. इस विश्व में रहकर किस प्रकार आचरण करना चाहिए, इसकी भी वे शिक्षा देते थे. ऐसे साधू या संत प्राय: बिरले ही होते है, जो स्वयं भगवतप्राप्ति के पश्चात् लोगों के कल्याणार्थ प्रयत्न करे. श्री साईं बाबा इन सब में आग्रनी थे. इसलिए कहते है. "वह देश धन्य है , वह कुटुंब धन्य है तथा वे माता-पिता धन्य है , जहाँ साईं बाबा के रूप में यह आसाधारण परम श्रेष्ट अनमोल विशुद्ध रत्न उत्पन्न हुआ
अब बोलिए जय साईं राम जी की. जय मेरी माँ वैष्णो रानी की. जय दुर्गा रानी की. जय राज रानी की. जय माता दी जी

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बुधवार, 5 सितंबर 2012

भगवती सती का शिव - प्रेम By Sanjay Mehta Ludhiana







भगवती सती का शिव - प्रेम

एक समय लीलाधारी परमेश्वर शिव एकांत में बैठे थे वही सती भी विराजमान थी. आपस में वार्तालाप हो रहा था. उसी वार्तालाप के प्रसंग में भगवान शिव के मुख से सती के श्यामवर्ण को देखकर 'काली' ऐसा शब्द निकल गया. 'काली' यह शब्द सुनकर सती को महान दुःख हुआ और वे शिव से बोली - 'महाराज! आपने मेरे कृष्ण वर्ण को देखर मार्मिक वचन कहा है. इसलिए मै वहां जाउंगी, जहा मेरा नाम गौरी पड़ी .. ऐसा कहकर परम ऐश्वर्यवती सती अपनी सखियों के साथ प्रभास-तीर्थ में तपस्या करने चली गई. वहां 'गौरिश्वर ' नामक लिंगको संस्थापित कर विधिवत पूजा और दिन-रात एक पैरपर खड़ी होकर कठिन तपस्या करने लगी. ज्यों-ज्यों तप बढ़ता जाता, त्यों-त्यों उनका वर्ण गौर होता जाता. इस प्रकार धीरे-धीरे उनके अंग पूर्णरूप से गौर हो गये.
तदनन्तर भगवान चंद्रमौली वहां प्रकट हुए और उन्हों ने सती को बड़े आदर से 'गौरी' इस नाम से सम्बोधित करके कहा 'प्रिये! अब तुम उठो और अपने मंदिर को चलो. हे कल्याणी! अभीष्ट वर मांगो, तुम्हारे लिए कुछ भी अदेय नहीं है, तुम्हारी तपस्या से मै परम प्रसन्न हु..
तब सती ने हाथ जोड़कर कहा - हे महाराज! आपके चरणों की दया से मुझे किसी बात की कमी नहीं है. मुझे अपने लिए कुछ नहीं चाहिए. परन्तु यह प्रार्थना अवश्य करुँगी की जो नर या नारी इस गौरिश्वर शिव का दर्शन करे, वे सात जन्मतक सौभाग्य - समृद्धि से पूर्ण हो जाए और उनके वंश में किसी को भी दारिद्र्य तथा दौर्भाग्य का भोग ना करना पड़े. मेरे संथापित इस लिंगकी पूजा करने से परमपद की प्राप्ति हो. गौरी की इस प्रार्थना को श्री महादेव जी ने परम हर्ष के साथ स्वीकार कर लिए और उन्हें लेकर वे अपने कैलाश को पधारे
अब बोलिए जय माता दी. जय मेरे भोले बाबा की . जय मेरी माँ गौरजा की. जय माँ राज रानी की. जय माँ वैष्णो रानी की
जय माता दी जी
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मंगलवार, 4 सितंबर 2012

हनुमान जी की आयु:सीमा By Sanjay Mehta Ludhiana







हनुमान जी की आयु:सीमा

हनुमान जी की आयु के रहस्य का विवेचन करना एक समस्या है, ऐसे तो ये अश्व्थामा , बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, क्रिपाचार्य, परशुराम और मार्कंडेय -- इन आठ चिरजिवियो में एकतम है. पर हनुमान जी को केवल चिरजीवी कहना पर्याप्त नहीं है - इन्हें नित्याजिवी अथवा अजर-अमर कहना भी असंगत नहीं, क्यों की लंका - विजय के पश्चात् हनुमान जी ने एकमात्र श्रीराम में सदा के लिए अपनी निश्छल भक्ति की याचना की थी और श्रीराम ने इन्हें ह्रदय से लगाकर कहा था - कपिश्रेष्ठ ऐसा ही होगा. संसार में मेरी कथा जबतक प्रचलित रहेगी, तब तक तुम्हारी कीर्ति भी अमित रहेगी और तुम्हारे शरीर में प्राण भी रहेंगे. तुमने मुझपर जो उपकार किये है, उनका बदला मै नहीं चूका सकता. इस प्रकार जब श्रीराम ने चिरकालतक संसार में प्रसन्नचित्त होकर जीवित रहने का इन्हें आशीर्वाद दिया, तब इन्होने भगवान से कहा - जबतक संसार में आपकी पावन कथा का प्रचार होता रहेगा, तबतक मै आपकी आज्ञा का पालन करता हुआ पृथ्वी पर रहूँगा. इंद्र से भी हनुमान जी को वरदान मिला था की इनकी मृत्यु तबतक नहीं होगी. जब तक स्वयं इन्हें मृत्यु की इच्छा नहीं होगी.
भगवान श्री राम ने इनकी नैष्ठिक की भगति के कारण अत्यंत प्रसन्न होकर कहा - 'हनुमान! मै तुमसे अत्यंत प्रसन्न हु, तुम जो वर चाहो मांग लों, जो वर त्रिलोकी में देवताओं को भी मिलना दुर्लभ है, वह भी मै तुम्हे अवश्य दूंगा. तब हनुमान जी ने अत्यंत हर्षित होकर भगवान श्रीराम के चरणों में प्रणिपात करके कहा - 'प्रभो! आपका नामस्मरण करते हुए मेरा मन तृप्त नहीं होता. अत: मै निरंतर आपके नाम का स्मरण करता हुआ पृथ्वी पर सथित रहूँगा. राजेन्द्र! मेरा मनोवांछित वर यही है की जब तक संसार मे आपका नाम सिथत रहे, तब तक मेरा शरीर भी विद्यमान रहे. इस पर भगवान श्रीराम ने कहा - ऐसा ही होगा, तुम जीवन्मुक्त होकर संसार में सुखपूर्वक रहो. कल्प का अंत होने पर तुम्हे मेरे सायुज्य की प्राप्ति होगी. इसमें संदेह नहीं.
श्री राम जी के समान ही भगवती जानकी जी ने भी अपने सच्चे भक्त हनुमान जी को आशीर्वाद देते हुए कहा - मारुते! तुम जहाँ कही भी रहोगे, वही मेरी आज्ञा से सम्पूर्ण भोग तुम्हारे पास उपस्थित हो जायेंगे.
इन प्रमाणों से ज्ञात होता है की हनुमान जी ना केवल चिरजीवी ही है , अपितु नित्याजिवी, इच्छा-मृत्यु तथा अजर-अमर भी है, भगवान श्रीराम उन्हें कल्प के अंत में सायुज्य मुक्ति का वरदान प्राप्त है, अत: उनकी अजरता-अमरता में कोई संशेय नहीं ... जनश्रुतियो से ज्ञात होता है आज भी वे अपने नैष्ठिक भक्त-उपासको को यदा-कदा जिस किसी रूप में दर्शन देते है
अब बोलिए श्री राम जी की जय. जय बाला जी की. जय माँ ज्वाला जी की. जय माँ राज रानी की. जय माँ वैष्णो रानी की
जय जय माँ . जय माता दी जी

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