शुक्रवार, 31 अगस्त 2012

मित्रर्ता By Sanjay Mehta Ludhiana











▒▓▓ ▒▓▓ ▒▓▓ ▒▓▓ ▒▓▓ ▒▓▓ ▒▓▓ ▒▓▓ ▒▓▓
▒▓▓ तुम्हारे जीवन में ऐसा भी प्रसंग आ सकता है कि ▒▓▓
▒▓▓ तुम जिस मनुष्य के साथ अधिक प्रेम करते हो ,, ▒▓▓
▒▓▓ वह भी किसी दिन तुम्हारे साथ धोखा कर देगा .. ▒▓▓
▒▓▓ प्रारम्भ के अनुसार जिव का स्वभाव भी बदलता . ▒▓▓
▒▓▓ है, तुम्हारा और उसके लेन-देन का सम्बन्ध पूरा ▒▓▓
▒▓▓ होने पर यह जो कुछ करेगा वह तुमको भला नहीं .. ▒▓▓
▒▓▓ लगेगा.. तुम्हारी इसके प्रति अरुचि हो जाएगी....... ▒▓▓
▒▓▓ जिसके लिए तुम बहुत आशापूर्ण रहते हो कि यह ..▒▓▓
▒▓▓ मेरे उपयोग में आवेगा, मेरा काम करेगा. मेरे साथ .▒▓▓
▒▓▓ रहेगा, मेरी भलाई की बात बोलेगा -ऐसा तुम्हारा .. ▒▓▓
▒▓▓ स्नेही सादारण से किसी कारण पर तुम्हारा शत्रु ... ▒▓▓
▒▓▓ जैसा हो जायेगा. शास्त्र में लिखा है कि जो मित्र......▒▓▓
▒▓▓ नहीं, वह यदि शत्रु हो जाये तो बाधा नहीं, परन्तु ....▒▓▓
▒▓▓ जो मित्र है वह यदि शत्रु बन जाता है तब बहुत ......▒▓▓
▒▓▓ रुलाता है, अब बोलिए जय माता दी जय जय माँ. ▒▓▓
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Sanjay मेहता









गुरुवार, 30 अगस्त 2012

सुख - दुःख By Sanjay Mehta Ludhiana







सुख - दुःख :-

तुम्हे भक्ति करनी हो तो भगवान से कहना कि मेरे जीवन में एकाध , दो तो दुःख मुझको देना. मुझको बहुत सुख मत देना, भागवत में कथा आती है कि कुंती जी ने परमात्मा से दुःख माँगा था. " हे नाथ! हमको पग-पग पर विपित्तिया आती रहे, ऐसा मे तुमसे मांगती हु. कारण कि विपिती में ही तुम्हारा स्मरण होता है. स्मरण से तुम्हारे दर्शन होते है और तुम्हारे दर्शन हो तो जन्म-मृत्यु के चक्कर में आना नहीं पड़ता "
यह जीव सब प्रकार से सुखी हो - यह ठीक नहीं. एकाध दुःख तो मनुष्य के जीवन में होना ही चाहिए जिससे दुःख में इसको विश्वास हो "भगवान के बिना मेरा कोई नहीं" सगे-सम्बन्धी का प्रेम कपट से भरा हुआ है, उसकी खबर दुःख में ही पड़ती है .
जीवन में दुःख होवे तो मनुष्य दीन बनता है. मनुष्य बहुत सुख पचा नहीं सकता. मनुष्य को बहुत सुख मिले तो ये प्रमादी होता है, बहुत सुख में यह भान भूल जाता है, सब प्रकार से सुखी हो तो वह भान जल्दी भूलता है, विलासी हो जाता है, अभिमानी हो जाता है, भगवान को भूल जाता है, अनेक प्रकार के दुर्गुण उसमे आ जाते है, अंत में उसका पतन हो जाता है
भगवान किसी समय प्रेमभरी दृष्टि से जीव का आकर्षण करते है, तो किसी समय मनुष्य के जीवन में दुःख प्रसंग खड़े करके उसको स्वयं कि तरफ खींचते है, जीव के कल्याण के लिए भगवान दुःख खड़ा करते है. कितने ही लोग ऐसा समझते है -"मै वैष्णव हु, सेवा करता हु, गरीबो का सम्मान करता हु, इसलिए मुझे कभी बुखार नहीं आवेगा, मेरा शरीर नहीं बिगड़ेगा, मुझे कोई दुःख नहीं होगा. ऍसी समझ सत्य नहीं है.
अनेक बार ऐसा होता है कि अति दुःख में शान्ति से बैठकर परमात्मा का स्मरण करे, तब उसकी बुद्धि में वह ज्ञान स्फुरण होता है - जो अनेक ग्रंथो के पढने पर इसे नहीं मिल पाता. दुःख में चतुरता आती है, साधरण मनुष्य को बहुत सुख में चतुरता आती है नहीं.
जीव जगत में आता है तब पाप और पुण्य दोनों लेकर आता है, पुण्य का फल सुख है और पाप का फल दुःख है, ऐसा कोई जीव नहीं जो अकेले पुण्य लेकर ही आया हो. सब ही पाप और पुण्य - दोनों लेकर आये होते है. और इस प्रकार से सबको सुख और दुःख - दोनों प्राप्त होते है. सभी अनुकूलता मुझको मिलनी चाहिए ऐसे आशा रखी व्यर्थ है

अरे, संसार में जो आया है, उसको रोज किसी ना किसी प्रकार कि अडचन रहती ही है, संसार रूपी समुंदर में तरंग जैसे प्रतिकूल प्रसंग तो रोज आवेंगे. किसी को समुन्द्र में स्नान करने कि इच्छा हो और वह ऐसा विचार करे कि तरंग शांत होने के बाद में स्नान करूँगा - तो ऐसा होना अशक्य है, समुन्द्र किसी दिन शांत होता नहीं, समुंदर में स्नान करना हो तो तरंगो का दुःख सहन करना ही पड़ता है, इस संसार - समुंदर में भी अड़चनरूपी तरंगे आती ही है. जीवन में एक अड़चन दूर हुई तभी दूसरी खड़ी दीखेगी, दूसरी दूर होती , तब तीसरी खड़ी रहेगी. मेरी माता श्रीमति राज रानी कहते थे , यहाँ तो दुखो का वेह हिसाब है जैसे पंजाबी में एक बोली है ="भंडा भंडारिया किन्ना कु भार, एक मुठ्ठी चक ले दूजी तैयार"
जय माता दी जी
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Sanjay Mehta









मंगलवार, 28 अगस्त 2012

लंकादहन By Sanjay Mehta Ludhiana







जिस समय पवननंदन हनुमान जी की पूँछ में आग लगाई जा रही थी, उसी समय एक भयानक राक्षसी ने दौड़कर माता जानकी से कहा -- 'सीते! तुम जिस बन्दर से बात कर रही थी, उसे बांधकर उसकी पूँछ में आग लगा दी गई है . उसे अत्यंत अपमान के साथ लंका की गलियों में घुमाया गया है

माता जानकी सहसा कांप उठी. उन्हों ने दृष्टि उठाकर देखा - विशाल लंकापुरी अग्नि की प्रचण्ड ज्वाला फैली हुई है. उन्होंने अत्यंत व्याकुल होकर अग्नि देव से प्राथना की - "अग्निदेव! यदि मै अपने प्राणनाथ पतिदेव की विशुद्ध सेविका हु और यदि मुझमे तपस्या तथा पातिव्र्त्याका बल है तो तुम पवनपुत्र हनुमान के लिए शीतल हो जाओ. एक तो पातीव्रत्य की अमित शक्ति! पतिवर्ता देवी इच्छा होने पर सम्पूर्ण सृष्टि को उल्ट-पुलट कर सकती है, दुसरे निखिल सृष्टि की स्वामिनी, जगजननी , मूल प्रकृति स्वयं शक्ति की प्रार्थना, तीखी लपटों वाले अग्निदेव श्री हनुमान जी के लिए शांतभाव से जलने लगे. उनकी शिखा प्र्दाक्षिनाभाव से उठने लगी, स्वयं हनुमान जी चकित होकर सोचने लगे - 'अरे! अग्नि तो प्रज्वलित है, इसके स्पर्श से विशाल अट्टालिकाए धायं-धायं जल रही है, किन्तु मै बिलकुल सुरक्षित हु. निश्चेय ही माता सीता की दया , मेरे परम प्रभु श्री राम के तेज तथा मेरे पिता की मंत्री के प्रभाव से अग्निदेव मेरे लिए शीतल बन गये है
बोलिए श्री हनुमान जी की जय. बोलिए माँ सीता पति श्री राम चन्द्र जी की जय . बोलिए मेरी माँ वैष्णो देवी की जय. मेरी माँ राज रानी की जय
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Sanjay Mehta









सोमवार, 27 अगस्त 2012

शिव हाथ में : संजय मेहता लुधियाना !!!!!







शिव हाथ में : संजय मेहता लुधियाना !!!!!
!

एक समय की बात है की अम्बाला जिले के भोवा नामक ग्राम का नम्बरदार किसी दुसरे स्थान से घर लौट रहा था, परन्तु लौटते समय मार्ग में पड़नेवाली बरसाती नदी, जो जाते समय सुखी पड़ी थी, एकाएक उमड़ आयी... उसे पार करने का कोई उपाए नहीं था, पर घर आना अत्यंत आवश्यक था. बेचारा बड़े सोच विचार में पड़कर भगवान को स्मरण करने लगा. इतने में उसने देखा एक जटा-जुट-धारी महात्मा, जो साक्षात् शिव प्रतीत होते थे, सामने आ खड़े हुए और उसके बिना कुछ कहे ही बोलते - "क्यों, बच्चा!!! नदी-पार जाना चाहता है? पर करीब दो सौ कदम चौड़ी गहरी नदी को, नौका आदि साधना के बिना कैसे पार करेगा?

बेचारा नम्बरदार आर्तभाव से उनके मुह की और ताकने लगा, उन परम कारुणिक महापुर्ष ने फिर उससे कहा " अच्छा , एक काम कर! अपने दोनों हाथ तो मेरे सामने कर" पथिक ने तुरंत आज्ञा का पालन किया.. उसके हाथ पसारने पर महात्मा जी ने उसके बाए हाथ में "शि" और दाहिने में "व्" लिख दिया और बोले की "जा, अब दोनों हाथो को देखते -देखते चला जा" बस, महात्मा जी के आदेशानुसार वह ऐसे नदी पार करने लगा, मानो साधारण मैदान में जा रहा हो. परन्तु जब कोई दस कदम नदी बाकी रह गई तब एकाएक उसके मन में यह भाव उठा कि अरे! महात्मा ने इस "शिव" को लिखकर कौन-सी करामत दिखलाई? यह शिव नाम तो मेरे माता-पिता बराबर लीया करते थे. शिव के सम्बन्ध में कथा-वार्ताए भी मैंने खूब सुनी है. फिर इस शिव में और कौन -सी विशेषता है? बस , यह भाव उसके अंदर उठा ही था कि वह नदी में गौते खाने लगा.. मालूम हुआ कि अब गया.. विवश होकर उन्ही अशरण-शरण को पुकारा -'भगवान! मेरी रक्षा करो
यह सुनते ही उस पार खड़े हुए महात्मा ने जोर से पुकारकर कहा - 'अरे! तू अपने उस शिव को छोड़कर इसी शिव का ध्यान कर' बस, महात्मा की वाणी सुनते ही उसका उठा हुआ अविश्वास जहाँ-का-तहां दब गया और वह अनायास ही नदी पार कर गया!!
पाठक! जब उसी हाथ में लिखे हुए "शिव" को देखने-मात्र से वह व्याक्ति नदी पार कर गया तब तो 'शिव-शिव' रटने से क्या नहीं हो सकता? हमें चाहिए कि हम अन्वार्त्भाव से उसमे लग जाए
अब बोलिए जय माता दी , जय शिव शक्ति की. जय माँ राज रानी की, जय माँ वैष्नोरानी की
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Sanjay Mehta










शनिवार, 25 अगस्त 2012

परमात्मा की सेवा - पूजा : By Sanjay Mehta Ludhiana










घर में भगवान का स्वरूप पधराकर परमात्मा की सेवा - पूजा करे, कोई भी स्वरूप की मूर्ति रखकर भाव और प्रेम-पूर्वक सेवा करे. कितने ही लोग घर में चित्रमय स्वरूप पधराते है, परन्तु मूर्ति-स्वरूप पधरावे तो अधिक ठीक है. चित्र-स्वरूप में स्नान नहीं हो पाते, अभिषेक नहीं हो पाता. जहाँ कम श्रृंगार किया की सेवा-पूजा जल्दी पूर्ण हो जाती है. मूर्ति स्वरूप हो तो तुम दूध से स्नान कराओ , सर्दी में गर्म जल से स्नान करो, श्रीअंग को पोंछो , फिर वस्त्र अर्पण करो, इस प्रकार सेवा-पूजा में अधिक समय लगा सकोगे, श्रृंगार हो उतने समय तक आँख और मन भगवान में लगाये रहे, श्रृंगार करनेवाला भगवान स्वरूप के साथ एक हो जावे, श्रृंगार करने से क्या भगवान की शोभा बढती है? नहीं, नहीं, वे तो सहज सुंदर है, श्रृंगार करने से अपना ही मन शुद्ध होता है, बड़े - बड़े योगियों को समाधि में जैसा आनंद मिलता है, वैसा आनंद वैष्णो को अनायास ही ठाकुर जी के श्रृंगार में मिल जाता है, खुली आँखों में ही समाधि जैसा आनंद मिल जाता है, श्रृंगार करने के पश्चात् भोग अर्पण करना चाहिए
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Sanjay Mehta







शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

::::शुक्रवार व्रत कथा:::: By Sanjay Mehta Ludhiana








::::शुक्रवार व्रत कथा::::

शुक्रवार के दिन मां संतोषी का व्रत-पूजन किया जाता है, जिसकी कथा इस प्रकार से है- एक बुढिय़ा थी, उसके सात बेटे थे. 6 कमाने वाले थे जबकि एक निक्कमा था. बुढिय़ा छहो बेटों की रसोई बनाती, भोजन कराती और उनसे जो कुछ झूठन बचती वह सातवें को दे देती. एक दिन वह पत्नी से बोला- देखो मेरी मां को मुझ पर कितना प्रेम है. वह बोली- क्यों नहीं, सबका झूठा जो तुमको खिलाती है. वह बोला- ऐसा नहीं हो सकता है. मैं जब तक आंखों से न देख लूं मान नहीं सकता. बहू हंस कर बोली- देख लोगे तब तो मानोगे..
कुछ दिन बाद त्यौहार आया. घर में सात प्रकार के भोजन और चूरमे के लड्डू बने. वह जांचने को सिर दुखने का बहाना कर पतला वस्त्र सिर पर ओढ़े रसोई घर में सो गया. वह कपड़े में से सब देखता रहा. छहों भाई भोजन करने आए. उसने देखा, मां ने उनके लिए सुन्दर आसन बिछा नाना प्रकार की रसोई परोसी और आग्रह करके उन्हें जिमाया. वह देखता रहा. छहों भोजन करके उठे तब मां ने उनकी झूठी थालियों में से लड्डुओं के टुकड़े उठाकर एक लड्डू बनाया. जूठन साफ कर बुढिय़ा मां ने उसे पुकारा- बेटा, छहों भाई भोजन कर गए अब तू ही बाकी है, उठ तू कब खाएगा. वह कहने लगा- मां मुझे भोजन नहीं करना, मै अब परदेस जा रहा हूं. मां ने कहा- कल जाता हो तो आज चला जा. वह बोला- हां आज ही जा रहा हूं. यह कह कर वह घर से निकल गया. चलते समय पत्नी की याद आ गई. वह गौशाला में कण्डे थाप रही थी. वहां जाकर बोला- हम जावे परदेस आवेंगे कुछ काल, तुम रहियो संन्तोष से धर्म आपनो पाल. वह बोली- जाओ पिया आनन्द से हमारो सोच हटाय, राम भरोसे हम रहें ईश्वर तुम्हें सहाय. दो निशानी आपनी देख धरूं में धीर, सुधि मति हमारी बिसारियो रखियो मन गम्भीर..
वह बोला- मेरे पास तो कुछ नहीं, यह अंगूठी है सो ले और अपनी कुछ निशानी मुझे दे. वह बोली- मेरे पास क्या है, यह गोबर भरा हाथ है. यह कह कर उसकी पीठ पर गोबर के हाथ की थाप मार दी. वह चल दिया, चलते-चलते दूर देश पहुंचा. वहां एक साहूकार की दुकान थी. वहां जाकर कहने लगा- भाई मुझे नौकरी पर रख लो. साहूकार को जरूरत थी, बोला- रह जा. लड़के ने पूछा- तनखा क्या दोगे. साहूकार ने कहा- काम देख कर दाम मिलेंगे. साहूकार की नौकरी मिली, वह सुबह 7 बजे से 10 बजे तक नौकरी बजाने लगा. कुछ दिनों में दुकान का सारा लेन-देन, हिसाब-किताब, ग्राहकों को माल बेचना सारा काम करने लगा. साहूकार के सात-आठ नौकर थे, वे सब चक्कर खाने लगे, यह तो बहुत होशियार बन गया. सेठ ने भी काम देखा और तीन महीने में ही उसे आधे मुनाफे का हिस्सेदार बना लिया. वह कुछ वर्ष में ही नामी सेठ बन गया और मालिक सारा कारोबार उसपर छोड़कर चला गया.
इधर उसकी पत्नी को सास ससुर दु:ख देने लगे, सारी गृहस्थी का काम कराके उसे लकड़ी लेने जंगल में भेजते. इस बीच घर के आटे से जो भूसी निकलती उसकी रोटी बनाकर रख दी जाती और फूटे नारियल की नारेली मे पानी..
एक दिन वह लकड़ी लेने जा रही थी, रास्ते मे बहुत सी स्त्रियां संतोषी माता का व्रत करती दिखाई दी. वह वहां खड़ी होकर कथा सुनने लगी और पूछा- बहिनों तुम किस देवता का व्रत करती हो और उसके करने से क्या फल मिलता है. यदि तुम इस व्रत का विधान मुझे समझा कर कहोगी तो मै तुम्हारा बड़ा अहसान मानूंगी. तब उनमें से एक स्त्री बोली- सुनों, यह संतोषी माता का व्रत है. इसके करने से निर्धनता, दरिद्रता का नाश होता है और जो कुछ मन में कामना हो, सब संतोषी माता की कृपा से पूरी होती है..
तब उसने उससे व्रत की विधि पूछी. वह बोली- सवा आने का गुड़ चना लेना, इच्छा हो तो सवा पांच आने का लेना या सवा रुपए का भी सहूलियत के अनुसार लाना. बिना परेशानी और श्रद्धा व प्रेम से जितना भी बन पड़े सवाया लेना. प्रत्येक शुक्रवार को निराहार रह कर कथा सुनना, इसके बीच क्रम टूटे नहीं, लगातार नियम पालन करना, सुनने वाला कोई न मिले तो धी का दीपक जला उसके आगे या जल के पात्र को सामने रख कर कथा कहना. जब कार्य सिद्ध न हो नियम का पालन करना और कार्य सिद्ध हो जाने पर व्रत का उद्यापन करना. तीन मास में माता फल पूरा करती है. यदि किसी के ग्रह खोटे भी हों, तो भी माता वर्ष भर में कार्य सिद्ध करती है, फल सिद्ध होने पर उद्यापन करना चाहिए बीच में नहीं. उद्यापन में अढ़ाई सेर आटे का खाजा तथा इसी परिमाण से खीर तथा चने का साग करना. आठ लड़कों को भोजन कराना, जहां तक मिलें देवर, जेठ, भाई-बंधु के हों, न मिले तो रिश्तेदारों और पास-पड़ोसियों को बुलाना. उन्हें भोजन करा यथा शक्ति दक्षिणा दे माता का नियम पूरा करना. उस दिन घर में खटाई न खाना..
यह सुन बुढ़िया के लड़के की बहू चल दी. रास्ते में लकड़ी के बोझ को बेच दिया और उन पैसों से गुड़-चना ले माता के व्रत की तैयारी कर आगे चली और सामने मंदिर देखकर पूछने लगी- यह मंदिर किसका है. सब कहने लगे संतोषी माता का मंदिर है, यह सुनकर माता के मंदिर में जाकर चरणों में लोटने लगी. दीन हो विनती करने लगी- मां मैं निपट अज्ञानी हूं, व्रत के कुछ भी नियम नहीं जानती, मैं दु:खी हूं. हे माता जगत जननी मेरा दु:ख दूर कर मैं तेरी शरण में हूं. माता को दया आई - एक शुक्रवार बीता कि दूसरे को उसके पति का पत्र आया और तीसरे शुक्रवार को उसका भेजा हुआ पैसा आ पहुंचा. यह देख जेठ-जिठानी मुंह सिकोडऩे लगे. लड़के ताने देने लगे- काकी के पास पत्र आने लगे, रुपया आने लगा, अब तो काकी की खातिर बढ़ेगी. बेचारी सरलता से कहती- भैया कागज आवे रुपया आवे हम सब के लिए अच्छा है. ऐसा कह कर आंखों में आंसू भरकर संतोषी माता के मंदिर में आ मातेश्वरी के चरणों में गिरकर रोने लगी. मां मैने तुमसे पैसा कब मांगा है. मुझे पैसे से क्या काम है. मुझे तो अपने सुहाग से काम है. मै तो अपने स्वामी के दर्शन मांगती हूं. तब माता ने प्रसन्न होकर कहा-जा बेटी, तेरा स्वामी आवेगा. यह सुनकर खुशी से बावली होकर घर में जा काम करने लगी.
अब संतोषी मां विचार करने लगी, इस भोली पुत्री को मैने कह तो दिया कि तेरा पति आवेगा लेकिन कैसे? वह तो इसे स्वप्न में भी याद नहीं करता. उसे याद दिलाने को मुझे ही जाना पड़ेगा. इस तरह माता जी उस बुढिय़ा के बेटे के पास जा स्वप्न में प्रकट हो कहने लगी- साहूकार के बेटे, सो रहा है या जागता है. वह कहने लगा- माता सोता भी नहीं, जागता भी नहीं हूं कहो क्या आज्ञा है? मां कहने लगी- तेरे घर-बार कुछ है कि नहीं. वह बोला- मेरे पास सब कुछ है मां-बाप है बहू है क्या कमी है. मां बोली- भोले पुत्र तेरी बहू घोर कष्ट उठा रही है, तेरे मां-बाप उसे त्रास दे रहे हैं. वह तेरे लिए तरस रही है, तू उसकी सुध ले. वह बोला- हां माता जी यह तो मालूम है, परंतु जाऊं तो कैसे? परदेश की बात है, लेन-देन का कोई हिसाब नहीं, कोई जाने का रास्ता नहीं आता, कैसे चला जाऊं? मां कहने लगी- मेरी बात मान, सवेरे नहा धोकर संतोषी माता का नाम ले, घी का दीपक जला दण्डवत कर दुकान पर जा बैठ. देखते-देखते सारा लेन-देन चुक जाएगा, जमा का माल बिक जाएगा, सांझ होते-होते धन का भारी ठेर लग जाएगा..
अब बूढ़े की बात मानकर वह नहा धोकर संतोषी माता को दण्डवत धी का दीपक जला दुकान पर जा बैठा. थोड़ी देर में देने वाले रुपया लाने लगे, लेने वाले हिसाब लेने लगे. कोठे में भरे सामान के खरीददार नकद दाम दे सौदा करने लगे. शाम तक धन का भारी ठेर लग गया. मन में माता का नाम ले चमत्कार देख प्रसन्न हो घर ले जाने के वास्ते गहना, कपड़ा सामान खरीदने लगा. यहां काम से निपट तुरंत घर को रवाना हुआ.
उधर उसकी पत्नी जंगल में लकड़ी लेने जाती है, लौटते वक्त माताजी के मंदिर में विश्राम करती. वह तो उसके प्रतिदिन रुकने का जो स्थान ठहरा, धूल उड़ती देख वह माता से पूछती है- हे माता, यह धूल कैसे उड़ रही है? माता कहती है- हे पुत्री तेरा पति आ रहा है. अब तू ऐसा कर लकडिय़ों के तीन बोझ बना ले, एक नदी के किनारे रख और दूसरा मेरे मंदिर पर व तीसरा अपने सिर पर. तेरे पति को लकडिय़ों का गट्ठर देख मोह पैदा होगा, वह यहां रुकेगा, नाश्ता-पानी खाकर मां से मिलने जाएगा, तब तू लकडिय़ों का बोझ उठाकर जाना और चौक मे गट्ठर डालकर जोर से आवाज लगाना- लो सासूजी, लकडिय़ों का गट्ठर लो, भूसी की रोटी दो, नारियल के खेपड़े में पानी दो, आज मेहमान कौन आया है? माताजी से बहुत अच्छा कहकर वह प्रसन्न मन से लकडिय़ों के तीन गठ्ठर बनाई. एक नदी के किनारे पर और एक माताजी के मंदिर पर रखा. इतने में मुसाफिर आ पहुंचा. सूखी लकड़ी देख उसकी इच्छा उत्पन्न हुई कि हम यही पर विश्राम करें और भोजन बनाकर खा-पीकर गांव जाएं. इसी तरह रुक कर भोजन बना, विश्राम करके गांव को गया. सबसे प्रेम से मिला. उसी समय सिर पर लकड़ी का गट्ठर लिए वह उतावली सी आती है. लकडिय़ों का भारी बाझ आंगन में डालकर जोर से तीन आवाज देती है- लो सासूजी, लकडिय़ों का गट्ठर लो, भूसी की रोटी दो. आज मेहमान कौन आया है.
यह सुनकर उसकी सास बाहर आकर अपने दिए हुए कष्टों को भुलाने हेतु कहती है- बहु ऐसा क्यों कहती है? तेरा मालिक ही तो आया है. आ बैठ, मीठा भात खा, भोजन कर, कपड़े-गहने पहिन. उसकी आवाज सुन उसका पति बाहर आता है. अंगूठी देख व्याकुल हो जाता है. मां से पूछता है- मां यह कौन है? मां बोली- बेटा यह तेरी बहु है. जब से तू गया है तब से सारे गांव में भटकती फिरती है. घर का काम-काज कुछ करती नहीं, चार पहर आकर खा जाती है. वह बोला- ठीक है मां मैने इसे भी देखा और तुम्हें भी, अब दूसरे घर की ताली दो, उसमें रहूंगा. मां बोली- ठीक है, जैसी तेरी मरजी. तब वह दूसरे मकान की तीसरी मंजिल का कमरा खोल सारा सामान जमाया. एक दिन में राजा के महल जैसा ठाट-बाट बन गया. अब क्या था? बहु सुख भोगने लगी..
इतने में शुक्रवार आया. उसने पति से कहा- मुझे संतोषी माता के व्रत का उद्यापन करना है. पति बोला- खुशी से कर लो. वह उद्यापन की तैयारी करने लगी. जिठानी के लड़कों को भोजन के लिए कहने गई. उन्होंने मंजूर किया परन्तु पीछे से जिठानी ने अपने बच्चों को सिखाया, देखो, भोजन के समय खटाई मांगना, जिससे उसका उद्यापन पूरा न हो. लड़के जीमने आए खीर खाना पेट भर खाया, परंतु बाद में खाते ही कहने लगे- हमें खटाई दो, खीर खाना हमको नहीं भाता, देखकर अरूचि होती है. वह कहने लगी- भाई खटाई किसी को नहीं दी जाएगी. यह तो संतोषी माता का प्रसाद है. लड़के उठ खड़े हुए, बोले- पैसा लाओ, भोली बहु कुछ जानती नहीं थी, उन्हें पेसे दे दिए. लड़के उसी समय हठ करके इमली खटाई ले खाने लगे. यह देखकर बहु पर माताजी ने कोप किया. राजा के दूत उसके पति को पकड़ कर ले गए. जेठ जेठानी मन-माने वचन कहने लगे. लूट-लूट कर धन इकठ्ठा कर लाया है, अब सब मालूम पड़ जाएगा जब जेल की मार खाएगा..
बहु से यह सहन नहीं हुए. रोती हुई माताजी के मंदिर गई, कहने लगी- हे माता, तुमने क्या किया, हंसा कर अब भक्तों को रुलाने लगी. माता बोली- बेटी तूने उद्यापन करके मेरा व्रत भंग किया है. वह कहने लगी- माता मैंने कुछ अपराध किया है, मैने तो भूल से लड़कों को पैसे दे दिए थे, मुझे क्षमा करो. मै फिर तुम्हारा उद्यापन करूंगी. मां बोली- अब भूल मत करना. वह कहती है- अब भूल नहीं होगी, अब बतलाओ वे कैसे आवेंगे? मां बोली- जा पुत्री तेरा पति तुझे रास्ते में आता मिलेगा. वह निकली, राह में पति आता मिला. वह पूछी- कहां गए थे? वह कहने लगा- इतना धन जो कमाया है उसका टैक्स राजा ने मांगा था, वह भरने गया था. वह प्रसन्न हो बोली- भला हुआ, अब घर को चलो.
कुछ दिन बाद फिर शुक्रवार आया. वह बोली- मुझे फिर माता का उद्यापन करना है. पति ने कहा- करो. बहु फिर जेठ के लड़कों को भोजन को कहने गई. जेठानी ने एक दो बातें सुनाई और सब लड़कों को सिखाने लगी. तुम सब लोग पहले ही खटाई मांगना. लड़के भोजन से पहले कहने लगे- हमे खीर नहीं खानी, हमारा जी बिगड़ता है, कुछ खटाई खाने को दो. वह बोली- खटाई किसी को नहीं मिलेगी, आना हो तो आओ, वह ब्राह्मण के लड़के लाकर भोजन कराने लगी, यथा शक्ति दक्षिणा की जगह एक-एक फल उन्हें दिया. संतोषी माता प्रसन्न हुई..
माता की कृपा होते ही नवमें मास में उसके चन्द्रमा के समान सुन्दर पुत्र प्राप्त हुआ. पुत्र को पाकर प्रतिदिन माता जी के मंदिर को जाने लगी. मां ने सोचा- यह रोज आती है, आज क्यों न इसके घर चलूं. यह विचार कर माता ने भयानक रूप बनाया, गुड़-चने से सना मुख, ऊपर सूंड के समान होठ, उस पर मक्खियां भिन-भिन कर रही थी. देहली पर पैर रखते ही उसकी सास चिल्लाई- देखो रे, कोई चुड़ैल डाकिन चली आ रही है, लड़कों इसे भगाओ, नहीं तो किसी को खा जाएगी. लड़के भगाने लगे, चिल्लाकर खिड़की बंद करने लगे. बहु रौशनदान में से देख रही थी, प्रसन्नता से पगली बन चिल्लाने लगी- आज मेरी माता जी मेरे घर आई है. वह बच्चे को दूध पीने से हटाती है. इतने में सास का क्रोध फट पड़ा. वह बोली- क्या उतावली हुई है? बच्चे को पटक दिया. इतने में मां के प्रताप से लड़के ही लड़के नजर आने लगे. वह बोली- मां मै जिसका व्रत करती हूं यह संतोषी माता है. सबने माता जी के चरण पकड़ लिए और विनती कर कहने लगे- हे माता, हम मूर्ख हैं, अज्ञानी हैं, तुम्हारे व्रत की विधि हम नहीं जानते, व्रत भंग कर हमने बड़ा अपराध किया है, जग माता आप हमारा अपराध क्षमा करो. इस प्रकार माता प्रसन्न हुई. बहू को प्रसन्न हो जैसा फल दिया, वैसा माता सबको दे, जो पढ़े उसका मनोरथ पूर्ण हो..!!! बोलो संतोषी माता की जय..!!!

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अमरनाथ गुफा के बारे में हैं कई जनश्रुतियां By Sanjay Mehta Ludhiana








अमरनाथ गुफा के बारे में हैं कई जनश्रुतियां

जनश्रुति प्रचलित हैं कि श्री अमरनाथ गुफा में माता पार्वती को भगवान शिव ने अमरकथा सुनाई थी, जिसे सुनकर सद्योजात शुक-शिशु शुकदेव ऋषि के रूप में अमर हो गये थे। गुफा में आज भी श्रद्धालुओं को कबूतरों का एक जोड़ा दिखाई दे जाता है, जिन्हें श्रद्धालु अमर पक्षी बताते हैं। वे भी अमरकथा सुनकर अमर हुए हैं। ऐसी मान्यता भी है कि जिन श्रद्धालुओं को कबूतरों को जोड़ा दिखाई देता है, उन्हें शिव-पार्वती अपने प्रत्यक्ष दर्शनों से निहाल करके उस प्राणी को मुक्ति प्रदान करते हैं।

यह भी माना जाता है कि भगवान शिव ने अद्र्धागिनी पार्वती को इस गुफा में एक ऐसी कथा सुनाई थी, जिसमें श्री अमरनाथ की यात्रा और उसके मार्ग में आने वाले अनेक स्थलों का वर्णन था। यह कथा कालांतर में अमरकथा नाम से विख्यात हुई। कुछ विद्वानों का मत है कि भगवान शंकर जब पार्वती को अमर कथा सुनाने ले जा रहे थे, तो उन्होंने छोटे-छोटे अनंत नागों को अनंतनाग में छोड़ा, माथे के चंदन को चंदनबाड़ी में उतारा, अन्य पिस्सुओं को पिस्सू टॉप पर और गले के शेषनाग को शेषनाग नामक स्थल पर छोड़ा था। ये तमाम स्थल अब भी अमरनाथ यात्रा में आते हैं।

अमरनाथ गुफा का सबसे पहले पता 16वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में एक मुसलमान गडरिए को चला था। आज भी चौथाई चढ़ावा उस मुसलमान गडरिए के वंशजों को मिलता है। आश्चर्य की बात यह है कि अमरनाथ गुफा एक नहीं है। अमरावती नदी के पथ पर आगे बढ़ते समय और भी कई छोटी-बड़ी गुफाएं दिखती हैं। वे सभी बर्फ से ढंकी हैं।

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गुरुवार, 23 अगस्त 2012

सोमवार, 20 अगस्त 2012

लक्ष्मी जी का शिव-पूजन : Lakshmi g ka shiv Poojan By Sanjay mehta Ludhiana







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लक्ष्मी जी का शिव-पूजन


एक बार श्री विष्णु भगवान ने लक्ष्मी जी के सामने भगवान शंकर की बड़ी प्रशंसा की और कहा की मुझे एकमात्र शिव ही प्रिय है, दूसरा कोई नहीं, यही नहीं, उन्हों ने यहाँ तक कह डाला की शिव और मुझमे कोई भेद नहीं है और जो शिव की पूजा नहीं करते वे मुझे कदापि प्रिय नहीं है. भगवान के इन वचनों को सुनकर लक्ष्मी जी बड़ी खिन्न हुई और अपने को शिव्प्रन्ग्मुखी समझकर आत्म्ग्रेहना करने लगी, तब भगवान ने उनको सांत्वना देते हुए कहा की - देवि, सोच ना करो, मैंने तुम्हे शिव-पूजा में परीव्र्त करने की लिए ही यह सब बाते कही है. अब आज से तुम प्रितिदीन विधिपूर्वक शंकर की पूजा प्रारम्भ कर दो और उसमे कभी चुक ना पड़ने दो. ऐसा करने से तुम मुझे शंकर के समान ही प्रिय हो जाओगी
श्री लक्ष्मी जी ने पति की आज्ञा को मस्तक पर रख, नारद मुनि से दीक्षा ग्रेहनकर शिव-पूजा प्रारम्भ कर दी. पूजा के प्रभाव से उनकी दिनोदिन शंकर जी में भक्ति बढ़ने लगी और शंकर के साथ साथ वे भगवान की भी अतिशेय कृपा-पात्र बन गई
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रविवार, 19 अगस्त 2012

Shabri Mata Ji By Sanjay mehta Ludhiana







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परमात्मा के दर्शन करते - करते आँखों में आंसू आवे और प्रभु स्वरूप भी बराबर ना दिखे, उस दिन ही बराबर दर्शन होते है, दर्शन करते हुए आँखों में आंसू ना आवे तब तक बराबर दर्शन होते ही नहीं, सेवा करते समय हृदय पिघले और आँखों में से आंसू निकले तो मानना की सेवा की है.
शबरी जी रामजी के सम्मुख विराजी हुई थी. परन्तु आँख आंसुओ से भर जाने के कारण वह बराबर दर्शन नहीं कर सकती थी, परमात्मा आज मेरे घर पधारे और मै हीन जाती एक भीलनी.. मेरे घर भगवान पधारे. मेरे भगवान कैसे उदार है? इनका मै क्या स्वागत करू ? इनको मै क्या अर्पण करू?
शबरी ने बीन-बीनकर सुंदर बेर रख रखे थे. श्री रामचंद्र जी के लिए... तैयार करके रखे हुए वे फल शबरी जी ने रघुनाथ जी को निवदेन किये, बारम्बार वंदन करके कहा
महाराज!! मै तो हीन जाती की हु, अधम हु. मुझे कुछ भी आता नहीं. मुझे कोई ज्ञान नहीं, पुरे दिन मै बस "श्री राम श्री राम " करती हु. आपने मुझे अपनाया, इससे मै आज कृतार्थ हो गई. मेरी दूसरी कोई इच्छा नहीं. कोई सुख भोगने की तनिक भी इच्छा नहीं. बहुत वर्षो से एक ही सकल्प है, श्री राम आवेंगे, उन्हें मै अपनी आँखों से निहारु. मेरी आपके पास कोई याचना नहीं, मै तो सिर्फ आप के दर्शन करू. सिर्फ आप के दर्शन करू. जय श्री राम जय श्री राम
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शनिवार, 18 अगस्त 2012

अपने भारत में पांच सरोवर प्रधान है: Bharat ke Paanch Srover By Sanjay mehta Ludhiana









अपने भारत में पांच सरोवर प्रधान है,

पहला है गुजरात में बिंदु सरोवर है यह बिंदु सरोवर सिद्धपुर में श्री सरस्वती नदी के कंठ में स्थित है

दूसरा है नारायण सरोवर, वह भी गुजरात में ही कच्छ प्रांत में स्थित है, यह नारायण सरोवर वह स्थल है, जहा प्रचेताओ ने तपश्चर्या की थी और जहा आदिनारायण परमात्मा इनको दर्शन देने के लिए प्रगट हुए थे.

तीसरा है उत्तर भारत में हिमालय में कैलाश पर्वत की तलहटी में मानसरोवर है, वहा भगवान शंकर विराजते है, मानसरोवर अति पवित्र है, दिव्या है,

चौथा सरोवर दक्षिण भारत में शबरी जी का जहाँ आश्रम था , उसके पास सथित है, इसको पम्पा सरोवर कहते है

पांचवा सरोवर जिन वैष्णो ने ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा की है, उनको खबर है की ब्रज में एक प्रेम सरोवर है, ये पांच सरोवर अति दिव्या है, प्रेम सरोवर पर श्री राधा कृष्ण का प्रथम मिलन हुआ था.

(इन के बारे में पूरी जानकारी के लिए कमेंट्स में लिखे जय माता दी , जय श्री राधे कृष्णा जय जय माँ )
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शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

श्री शिव और श्री राम: Shree Shiv or Shree Ram By Sanjay Mehta Ludhiana









श्री शिव और श्री राम


पद्मपुराण(उत्तर खंड, अध्याय ७२ , श्लोक ३३५ में यह कथा आती है )
एक दिन पार्वती जी ने महादेव जी से पूछा "आप हरदम क्या जपते रहते है?"
उत्तर में महादेव जी ने विष्णु सहस्त्रनाम कह सुनाये
अंत में पार्वती जी ने कहा -"ये तो एक हजार नाम आपने कहे है, इतना जपना तो सामान्य मनुष्य के लिए असंभव है, कोई एक नाम कहिये जो सहस्त्रो नामो के बराबर हो और उनके स्थान में जपा जाये"
इस पर महादेव जी ने कहा

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे
सहस्त्रनाम ततुल्यं रामनाम वरानने

फिर इसी पुराण के उत्तर खंड , अध्याय २७० श्लोक ४० में शिवजी श्रीराम जी से कहते है.
मरने के समय मनिकर्णिका घाट पर गंगा जी में जिस मनुष्य का शरीर गंगाजल में पड़ा रहता है, उसको मै आपका तारक-मन्त्र देता हु, जिससे वह ब्रह्म में लीन हो जाता है

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गुरुवार, 16 अगस्त 2012

नटराज - उपाधि के रहस्य *: Natraj Upadhi ke rehasya By Sanjay mehta Ludhiana


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नटराज - उपाधि के रहस्य *
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*यह कथा श्रीराम कृष्ण परमहंस जी महाराज को शिष्य-परम्परा से किसी वयोवृद्ध परम भक्त वैष्णव ने सुनी थी और मुझे काशी में 'श्री शिव-पार्वती' तथा 'कृष्ण-राधा' में एक्याभाव है, इसलिए उन्होंने समझायी थे और किसी उपपुरण का नाम भी बताया  था, वह मुझे स्मरण नहीं है, भक्तजन लाभ उठावे,  इस लिए इसे लिख रहा हु. वैसे आप इसे कल्याण के 'श्री शिवांक' में पेज १६३ में भी देख सकते है (संजय मेहता) 

कथा :- किसी समय प्रदोषकाल में जब देवगन रजतगिरि  कैलाश पर 'नटराज' शिव के तांडव में सम्मिलित हुए और जगजननी आद्या श्री गौरीजी रतनसिंहासन  पर बैठकर अपनी अद्याक्ष्ता में तांडव कराने को तैयार हुई. ठीक उसी समय वहां श्री नारद जी महाराज भी आ गये और अपनी वीणा के साथ तांडव में सम्मिलित हुए. तदन्तर श्री शिवजी तांडव नृत्य करने लगे, श्री सरस्वती जी वीणा बजाने लगी, इंद्र महाराज वंशी बजाने लगे. ब्रह्मा जी हाथ से ताल देने लगे. और लक्ष्मी जी आगे आगे गाने लगी, विष्णुभगवान  मृदंग बजाने लगे और बचे हुए देवगन तथा गन्धर्व , यक्ष, पन्नग , उरग, सिद्ध, विद्याधर , अप्सराएं सभी चारो और से स्तुति में लीन हो गये, बड़े ही आनंद के साथ तांडव सम्पन्न हुआ. उस समय श्री आद्या भगवती(महाकाली) पार्वती जी परम प्रस्न हुई और उन्हों ने श्रीशिवजी(महाकाल) से पूछा कि आप क्या चाहते है? आज बड़ा ही आनंद हुआ. फिर सब देवो से, विशेषकर नारदजी से प्रेरित होकर उन्हों ने यह वर माँगा कि 'हे देवि! इस आनंद को केवल हमलोग ही लेते है, किन्तु पृथ्वीतल में एक ही नहीं, हजारो भक्त इस आनंद से तथा नृत्य-दर्शन से वंचित रहते है, अतएव  मृत्यलोक में भी जिस प्रकार मनुष्य इस आनंद को प्राप्त करे ऐसा कीजिये, किन्तु मै अपने तांडव को समाप्त करूँगा और 'लास्य' करूँगा. इस बात को सुनकर श्री आद्या भुवनेश्वरी महारानी ने 'एवमस्तु' कहा और देवगणों से मानुष-अवतार लेने को कहा और स्वयं श्यामा (आद्या महाकाली) श्यामसुंदर का अवतार लेकर श्री वृन्दावन धाम में आयी   और श्री शिवजी (महाकाल) ने राधा जी का अवतार लेकर व्रज में जन्म लीया और 'देवदुर्लभ रासमंडल' की आयोजना की और वही 'नटराज' की उपाधि यहाँ श्यामसुंदर को दी गई. बोलो नटराज भगवान की जय  , बोलो माँ वैष्णोदेवी की जय, बोलो मेरी माँ राजरानी की जय. बोलो दुर्गा देवी की जय. 


Sanjay Mehta


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बुधवार, 15 अगस्त 2012

मेहंदीपुर.. Mehndipur Balaji By Sanjay Mehta Ludhiana







मेहंदीपुर --- यह स्थान जयपुर-बांदीकुई-बसमार्ग पर जयपुर से लगभग 65 किलोमीटर दूर है, दो पहाडियो के बीच की घाटी में स्थित होने के कारण इसे 'घाटा मेहंदीपुर' भी कहते है, मेहंदीपुर के श्री बालाजी मनौती को पूर्ण करनेवाले है. मुख्यत: भुत-प्रेत, पिशाच, वन्ध्यत्व, लकवा आदि बाधाओ से तो वे मुक्त कर ही देते है - लोगो की ऐसी दृढ श्रधा होने के कारण यहाँ पुरे वर्ष भक्तो , पीडितो तथा यात्रियो का आना -जाना लगा रहता है, यहाँ के प्रमुख देवता तो श्रीबाला जी ही है, परन्तु साथ ही प्रेतराज श्री भैरवनाथ जी भी वैसे ही महत्वपूर्ण है.


जनश्रुति के अनुसार यह देवस्थान लगभग एक हजार वर्ष पुराना है, बहुत पहले वहा कोई मंदिर ना था ... एक बार मंदिर के महंतों में से किसी पूर्वज महंत को श्री बालाजी ने स्वप्न में दर्शन देकर वहां मंदिर स्थापित करके उपासना करने का आदेश दिया तदन्तर उन महंतों ने वहा मंदिर बनवाया. कहा जाता है की मुगुल साम्राज्य में इस मंदिर को तोड़ने के अनेक प्रयास हुए परन्तु सफलता ना मिली, वर्तमान नया मंदिर सौ वर्षो से अधिक पुराना प्रतीत नहीं होता. राजस्थान में यह मंदिर विशेष प्रिसद्ध है..
बोलो श्री बाला जी महाराज की जय, बोलो श्री प्रेतराज श्री भैरव बाबा की जय
बोलो माँ दुर्गा की जय, बोलो माँ राज रानी की जय
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Sanjay Mehta









भारत हमको जान से प्यारा है.. Bharat Hamko Jaan Se pyara hai









भारत हमको जान से प्यारा है
सबसे न्यारा गुलिस्तां हमारा है
सदियों से भारत भूमि दुनिया की शान है
भारत मां की रक्षा में जीवन क़ुर्बान है
भारत हमको जान से ...

उजड़े नहीं अपना चमन, टूटे नहीं अपना वतन
दुनिया धर धरती कोरी, बरबाद ना करदे कोई
मन्दिर यहाँ, मस्जिद वहाँ, हिन्दू यहाँ मुस्लिम वहाँ
मिलते रहे हम प्यार से
जागो ...

हिन्दुस्तानी नाम हमारा है, सबसे प्यारा देश हमारा है
जन्मभूमि है हमारी शान से कहेंगे हम
सभी तो भाई-भाई प्यार से रहेंगे हम
हिन्दुस्तानी नाम हमारा है

आसाम से गुजरात तक, बंगाल से महाराष्ट्र तक
झनकी सही गुन एक है, भाषा अलग सुर एक है
कश्मीर से मद्रास तक, कह दो सभी हम एक हैं
आवाज़ दो हम एक हैं

जागो ...

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bhaarat hamako jaan se pyaaraa hai
sabase nyaaraa gulistaa.n hamaaraa hai
sadiyo.n se bhaarat bhuumi duniyaa kii shaan hai
bhaarat maa.n kii rakshaa me.n jiivan qurbaan hai
bhaarat hamako jaan se...

uja.De nahii.n apanaa chaman, TUTe nahii.n apanaa vatan
duniyaa dhar dharatii korI, barabaad naa karade koii
mandir yahaa.n, masjid vahaa.n, hinduu yahaa.n muslim vahaa.n
milate rahe ham pyaar se
jaago ...

hindustaanii naam hamaaraa hai, sabase pyaaraa desh hamaaraa hai
janmabhuumi hai hamaarii shaan se kahe.nge ham
sabhii to bhaaI\-bhaaI pyaar se rahe.nge ham
hindustaanii naam hamaaraa hai

aasaam se gujaraat tak, ba.ngaal se mahaaraashhTr tak
jhanakii sahii gun ek hai, bhaashhaa alag sur ek hai
kashmiir se madraas tak, kah do sabhii ham ek hai.
aavaaz do ham ek hai.

jAgo ...

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मंगलवार, 14 अगस्त 2012

शिव परिवार और उन का तबेला : shiv parivar or un ka tabela by Sanjay Mehta Ludhiana











शिव परिवार और उन का तबेला
माता पार्वती कितनी मुश्किल से शिव परिवार को और उस के तबेले को संभालती है जरा गौर दीजिये (संजय मेहता) शिव परिवार देखिये ... भोले बाबा ने अपनी सवारी रखी है बैल और माँ शेरावाली ने रखी है शेर. बैल और शेर क्या एक साथ नाथे जाते है? इस तरह गणेश जी को दिया है चूहा, और खुद रख लीया सांप और स्वामी कार्तिक जी को दिया है मोर. अब ये तीनो एक के उपर एक क्यों ना सवारी करे? फिर मजा यह की जरा से खलबलाहट में भयंकर रूप से भोंकने वाला कुत्ता अपने कोतवाल साहब श्री भैरव बाबा जी को इनायत कर दिया है और यह कुत्ता भी उसी तबेले में डाल दिया गया है जहाँ बैल , बाघ, चूहा, सांप , मोर आदि रहते है, अब पाठक स्वयं ही अनुमान कर सकते है की उस तबेले में शांति -स्थापना का कार्य कितना दुष्कर रहा करता होगा.

भोले नाथ को क्या है! जब तक शांति रही तब तब रही, जहा अशांति होने लगी की झट उन्होंने समाधि ले ली, परवाह तो असल में माता पार्वती जी को है, जिन के भरोसे सारी ग्रहस्थी चलती है, जिस समय गजानन मोदको के लिए मचलते है , उस समय साक्षात अन्नपूर्णा के सामने भी अर्थ-संकट आ जाता है. परन्तु रतनगर्भा वसुंधरा के सर्वोच्च आधाररत्म्भ की एकमात्र मान्य होने कारण पार्वती जी उन साधनों को जानती है, जिनके द्वारा वे इस विचित्र परिवार के प्रत्येक व्याक्ति का पूर्ण संतोष कर सके. साथ ही उन्हों ने सुयोग्य ग्रेह्स्वमिनी के समान यह चतुरता भी रखी है की रिद्धि- सिद्धि को अपनी पुत्रवधु बना छोड़ा है, बस, अब उनके सहारे इनकी अर्थस्मस्य बहुत कुछ सुलझ गई है, इतना होते हुए भी उन्हों ने सबसे बड़ा अच्छा काम यह किया की अपनी ग्रहस्थी कैलाश पर्वत के शिखर पर जमायी है. जहाँ आस पास केवल बर्फ-ही-बर्फ है, मांग तो वहां पैदा होती है जहा मांगने योग्य वस्तुए दिखाई दे. अथवा जहाँ तबीयत में किसी अभाव की गर्मी हो.. यहाँ तो शीताल्तादायक हिमराशी के अतरिक्त और कही कुछ है ही नहीं, इसलिए यह निश्चेय है की इतनी ठंडक में दबकर इस कुटुंब के व्यक्ति तथा वाहनों के झगडालू होंसले भी ठन्डे पड़ जायेंगे और वित्त से बाहर दान दे देनेवाले भोले बाबा के पास तक पहुँचने का दुस्साहस करनेवाले भक्तो का उत्साह भी ठंडा पड़ जायेगा. इस चातुर्य का कोई ठिकाना नहीं. क्यों ना हो, आखिर माँ दुर्गा महामाया जो ठहरी
बोलिए मेरी माँ दुर्गा देवी की जय, मेरी माँ वैष्णो रानी की जय , मेरी माँ राज रानी की जय .
जय माता दी
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Sanjay Mehta








सोमवार, 13 अगस्त 2012

सुदर्शन चक्र की कथा : Sudershan Chkr Ki Katha By Sanjay Mehta Ludhiana







सुदर्शन चक्र की कथा


एक बार शिवजी को प्रसन करने हेतु विष्णु जी ने बड़ा उग्र तप किया, उस समय उन्हों ने 'शिव सहस्त्रनाम -स्त्रोत ' के लिए शिवजी को अर्पित करने के अर्थ एक सहस्त्र कमल एकत्रित किये, शिवजी ने कौतुकवश एक कमल उन कमलो में से लुप्त कर दिया, जब सहस्त्रनाम उच्चारण समाप्त करने को हुए तो विष्णु जी को ज्ञात हुए की एक कमल कम है. बस उन्हों ने उसके स्थान पर अपना नेत्र निकलकर शिवजी को समर्पित कर दिया. फिर तो देवादिदेव ने प्रस्न हो विष्णु जी को दर्शन दिए और उनको उनके उन नेत्रों की जगह कमल-सरीखे नेत्र प्रदान किये, तभी तो विष्णु जी का नाम पुण्डरीकाक्ष पड़ा. सुदर्शन-चक्र भी उसी समय शिवजी ने विष्णु जी को दिया.
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Sanjay मेहता

जन्म दिन की हार्दिक शुभकामनाये . जय माता दी जी









रविवार, 12 अगस्त 2012

'जया' नामवाली दुर्गादेवी Jya Durgadevi By Sanjay Mehta Ludhiana









सिद्धि की इच्छा रखनेवाले पुरष जिनकी सेवा करते है तथा देवता जिन्हें सब और से घेरे रहते है उन 'जया' नामवाली दुर्गादेवी का मै ध्यान करता हु , उनके श्री अंगो की आभा काले मेघ के समान श्याम है, वे अपने कटाक्षो से शत्रुस्मुह को भय प्रदान करती है, उनके मस्तकपर आबद्ध चंद्रमा की रेखा शोभा पाती है, वे अपने हाथो में शंख, चक्र, क्रपान और त्रिशूल धारण करती है, उनके तीन नेत्र है, वे सिंह के कंधे पर चढ़ी हुई है और अपने तेज से तीनो लोकों को परिपूर्ण कर रही है
जय माता दी जी , जय माँ वैष्णोदेवी की, जय माँ राजरानी की, जय जय माँ
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Sanjay Mehta









शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

ॐ नमो: नारायणा: Om namo: narayana By Sanjay Mehta Ludhiana













ॐ नमो: नारायणा - ॐ नमो: नारायणा -ॐ नमो: नारायणा
नारायण श्री नारायण, भज ले रे तू नारायण
भव भय भंजन , जन्म निरंजन, संकट मोचन , पाप विमोचन
नारायण श्री नारायण, भज ले रे तू नारायण

मात-पिता है नारायण, बंधू सखा है नारायण,
गुरु की दीक्षा है नारायण, योग तपस्या है नारायण
भव भय भंजन , जन्म निरंजन, संकट मोचन , पाप विमोचन
नारायण श्री नारायण, भज ले रे तू नारायण

नारायण श्री नाथ हरे, नाथ हरे श्री नाथ हरे
नारायण श्री नारायण, नारायण श्री नारायण

हे प्रभु एसी ज्योत जगा, मेरे मन में बसे तू सदा
हे प्रभु एसी ज्योत जगा, मेरे मन में बसे तू सदा
लक्ष्मी वल्लभा लक्ष्मी वल्लभा लक्ष्मी वल्लभा









मंगलवार, 7 अगस्त 2012

महाकाली देवी : Mahakali Devi By Sanjay Mehta Ludhiana









भगवान विष्णु के सों जाने पर मधु और कैटभ को मारने के लिए कमलजन्मा ब्रह्माजी ने जिनका स्तवन किया था, उन महाकाली देवी का मै स्तवन करता हु, वे अपने दास हाथो में खड्ग, चक्र, गदा, बाण, धनुष, परिघ, शूल , भुशुण्डी, मस्तक और शंख धारण करती है, उनके तीन नेत्र है, वे समस्त अंगो में दिव्या आभुष्नो से विभूषित है, उनके शरीर की कान्ति नीलमणि के समान है तथा वे दस मुख और दस पैरो से युक्त है
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Sanjay Mehta









हनुमान जी का मुष्टि - प्रहार : By Sanjay Mehta Ludhiana









हनुमान जी का मुष्टि - प्रहार


हनुमान जी का मुष्टि - प्रहार
हनुमान जी लात, लान्गुल और मुक्का - तीनो से प्रहार करते है, इनके तीनो अंगो का बल अद्वित्य तथा अमोघ है, फिर भी इनके मुक्के का प्रहार विशेष सबल और अचूक है, लंका के तीनो विशिष्ट वीर - रावण , कुम्भकर्ण तथा मेघनाद इनके एक - एक मुष्टि - प्रहार भी सहन नहीं कर सके, परिणामत: तीनो मूर्छित हए , इनके क्रमश: उदहारण लीजिये

प्रचण्ड - शक्ति - प्रयोग द्वारा मूर्छित लक्ष्मण जी को जब रावण उठाने लगा, तब वे उससे उठ ना सके, इतने में ही हनुमान जे ने देख लिए और
दोहा :
देखि पवनसुत धायउ बोलत बचन कठोर।
आवत कपिहि हन्यो तेहिं मुष्टि प्रहार प्रघोर॥83॥
यह देखकर पवनपुत्र हनुमान्‌जी कठोर वचन बोलते हुए दौड़े। हनुमान्‌जी के आते ही रावण ने उन पर अत्यंत भयंकर घूँसे का प्रहार किया॥
रावण का मुष्टि प्रहार प्रघोर था, फिर भी वह हमारे हनुमान जी को गिरा नहीं सका, इधर हनुमान जी के मुष्टि प्रहार से रावण चारो खाने चित्त हो गया वह विश्वविजयी रावण , रावण मूर्छित पड़ा रहा और हनुमान जी उसकी मूर्छा निर्वर्ती की प्रतीक्षा करते रहे, किन्तु वाह रे मुष्टि -प्रहार का परभाव.. होश में आते ही रावण से रहा ना गया और वह मुक्त-कंठ से हनुमान जी के विपुल बल की सराहना करने लगा.

अब पवन -नंदन के मुक्के से कुम्भकर्ण की मूर्छा का प्रसंग देखिये
कुम्भकर्ण कोटि -कोटि गिरी -शिखर - प्रहार को सहता हुए भी युद्ध में निर्बाध बढ़ता जा रहा था, वह पवनात्म्जा का मुक्का लगते ही व्याकुल होकर धरती पर ढेर हो गया और लगा सिर पीटने . जो कार्य असंख्य योद्धाओ -द्वारा कोटि - कोटि गिरी-शिखर-प्रहार करने से भी ना हो सका, वह वायुपुत्र के एक मुक्के की मार से तुरंत सम्पन्न हो गया, धन्य है वायुकुमार और धन्य है उनका यह मुष्टि -प्रहार! कुम्भकर्ण ने भी रावण को समझाते हुए हनुमान जी के बल की प्रशंसा जी खोलकर की

और मेघनाद तो अशोक - वाटिका के युद्ध में ही हनुमान जे के मुक्के से मूर्छित हो चूका था. , हनुमान के मुक्के का मर्म जान लेने के बाद मेघनाद अपने आपको उनके सामने सदा पराजित अनुभव करता था, हनुमान जी के बार बार ललकारने पर भी वह उनके निकट नहीं आता था, बल्कि बड़ी सावधानी के साथ उनसे बचकर भाग जाता था.
यह है अतुलितबलधाम हनुमान जी के मुष्टि - प्रहार का अनोखा चमत्कार और सदैव ही अभिनंदनीय है, श्री पवन - नंदन का यह अतुलित बल

Sanjay Mehta








शनिवार, 4 अगस्त 2012

भगवान कृष्ण नील वर्ण के क्यों हैं : Bhagwan Krishn Neel Vrn Ke Kyu Hai? By Sanjay Mehta Ludhiana








भगवान कृष्ण नील वर्ण के क्यों हैं

जब भी हम भगवान कृष्ण या राम चन्द्र जी के दर्शन करते है तो अक्सर मन में ये बात आती है कि भगवन कृष्ण नील वर्ण के क्यों हैं ?'भगवान ने गीता में स्वयं ही कहा है हे अर्जुन एक मेरा शरणागत हो जा में हर पाप से मुक्ति दूँगा शोक न कर मेरी भक्ति में खो जा'' संत कहते है कि जब कोई भक्त भगवान के पास जाता है और अपने आप को उन्हें समर्पित कर देता है तो भगवान उसके समस्त पापों को ले लेते है.और पाप का स्वरुप काला है. जब कोई भक्त भगवान को अपने पाप देता है तो पाप का अस्तित्व रखने के लिए भगवान कुछ काले हो गए.जैसे भगवान शिव जी ने जब समुद्र मंथन से निकले विष को पिया और उसे गले में धारण कर लिया तो विष के अस्तित्व रखने के लिए उसकी मर्यादा के लिए उनका कंठ नीला हो गया और वे नीलकंठ हो गए उनका एक नाम नीलकंठेश्वर हो गया.कही कही ऐसा भी कहते है कि जल समुह अथाह अनंत गहराइयों और विस्तार को लिए हुए होता है तब उसमे नीलिमा झलकती है. ऐसे ही निर्मल प्रेम के सागर श्री कृष्ण, आदि -अनंत विस्तार लिए हुए हैं. यही कारण है कि श्री कृष्ण नील वर्ण हैं.''राम के नीले वर्ण और कृष्ण के काले रंग के पीछे एक दार्शनिक रहस्य है। भगवानों का यह रंग उनके व्यक्तित्व को दर्शाते हैं। दरअसल इसके पीछे भाव है कि भगवान का व्यक्तित्व अनंत है। उसकी कोई सीमा नहीं है, वे अनंत है। ये अनंतता का भाव हमें आकाश से मिलता है। आकाश की कोई सीमा नहीं है। वह अंतहीन है। राम और कृष्ण के रंग इसी आकाश की अनंतता के प्रतीक हैं.
भक्तजन कहते है कि जब भगवान ने कालिया का दमन किया तो उसके विष का मान रखने के लिए वे कुछ संवारे हो गए. यशोदा जी से जब बाल कृष्ण पूछते मैया! तु गोरी है,नंद बाबा भी गोरे है, दाऊ भी गोरे है,फिर मै क्यों काला हूँ ? तो यशोदा जी कहती लाला ! कि काली अन्धयारी रात में तेरा जन्म हुआ, रात काली है. इसलिए तु काला है तूने काली पद्मगंधा गाय का दूध पिया है. इसलिए काला है. भगवान का एक नाम है श्याम सुन्दर कितना प्यारा नाम है ,जो काले रंग को भी सुन्दर बना दे,श्याम अर्थात काला और सुन्दर.जो गोरा होता है उसे तो सभी सुन्दर कहते है,पर हमारे श्याम सुन्दर तो ऐसे है जो काले होने पर भी सुन्दर है.
अब बोलिए जय श्री राधे. जय माता दी जी . जय माँ राज रानी. जय माँ दुर्गे
आइये प्रेम से श्री हरिनाम महामंत्र का जाप करें कम से कम एक बार अवश्य लिखें-राधे-राधे
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे -हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे -हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे -हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे -हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे -हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे -हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
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बुधवार, 1 अगस्त 2012

जिसको परमात्मा का अनुभव हुआ है , Jisko Parmatma ka Anubhav Hua .. By Sanjay mehta Ludhiana








जिसको परमात्मा का अनुभव हुआ है, उसके जीवन में संतोष और शान्ति होती है, लक्ष्मी मिलने के बाद संतोष नहीं होता, भले पीछे लाख मिले या करोड़ मिले. लक्ष्मीपति जिसको मिलते है, उसको शान्ति होती है, प्रभु का सतत ध्यान किये बिना लक्ष्मीपति नहीं मिलते . सतत ध्यान तब हो सके जब लक्ष्मी का मोह छूटे. प्रभु जो सतत ध्यान करते है वे अधिकांश भाग में गरीब ही रहते है. समस्त दिन ध्यान करे वह लक्ष्मी जी को ठीक नहीं लगता, सतत भक्ति करने से लक्ष्मी जी को ऐसा लगता है की यह मुझे नारायण के साथ एकांत में पांच मिनट भी बात नहीं करने देता. लक्ष्मी जी नाराज होकर उसका त्याग कर देती है, सम्पूर्ण दिवस भक्ति करे उसे लक्ष्मीपति मिलते है, लक्ष्मी जी नहीं मिलती, ऐसे भक्तो को लक्ष्मी की आवश्यकता भी नहीं.
बोलो लक्ष्मी नारायण की जय .
बोलो राज रानी की जय. बोलो माँ वैष्णो देवी की जय
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Sanjay Mehta