श्री हरसिद्धि देवी
यहाँ सती की केहुनी गिरी थी इसी से यहाँ देवी की कोई प्रतिमा नहीं ,
प्राचीन काल में चण्ड, प्रचण्ड नामक दो राक्षस थे , जिन्होंने अपने बल - पराक्रम से सारे संसार को कंपा दिया था। एक बार ये दोनों कैलास पर गए . जब ये दोनों अंदर जाने लगे तो द्वार पर नंदीगण ने इन्हे रोका, जिससे क्रोधित होकर इन्होने नंदीगण को घायल कर डाला। जब भगवान् शंकर को यह बात मालुम हुई तो उन्होंने चण्डी का समरण किया . देवी ने तुरंत प्रकट होकर शिवजी की आज्ञा के अनुसार उन राक्षस का वध कर दिया। शिवजी ने देवी की विजय पर प्रसन्न होकर कहा कि अब से संसार में तुम्हारा नाम 'हरसिद्धि' प्रसिद्ध होगा और लोग इसी नाम से तुम्हारी पूजा करेंगे। तब से माता हरसिद्धि उज्जैन के महाकालवन में ही विराजती है
कहते है सम्राट विक्रमादित्य कि आराध्या देवी यह श्री हरसिद्धि ही थी। वह इन्ही की कृपा से निर्विघ्न शासनकार्य चलाया करते थे। महाराज माताजी के इतने बड़े भक्त थे कि वह हर बारहवे साल सवयं अपने हाथो अपना सिर उनके चरणो पर चढ़ाया करते थे और माता की कृपा से उनका सिर फिर पैदा हो जाता था। इस तरह राजा ने ग्यारह बार पूजा की और बार -२ जीवित हो गए। बारहवी बार जब उन्हों ने पूजा कि तो सिर वापस नहीं हुआ और इस तरह उनका जीवन समाप्त हो गया। आज भी मंदिर के एक कोने में ग्यारह सिन्दूर लगे हुए रुण्ड रखे हुए है। लोगो का कहना है कि ये विक्रम के कटे हुए मुण्ड है। किन्तु इस विषय में कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं पाया जाता। अब कहिये जय माता दी जी
तू ही
दोहा - चिंता बिघ्नबिनासिनी कमलासनी सक्त
बीसहथी हँसबाहिनी माता देहु सुमत्त
भुजंगप्रयात
नमो आद अनाद तुंही भवानी। तुंही योगमाया तुंही बाकबानी
तुंही धरन आकास बिभो पसारे। तुंही मोहमाया बिसे सूल धारे
तुंही चार बेद खंट भाप चिन्ही। तुंही ज्ञान बिज्ञान में सर्ब भिन्हि
तुंही बेद बिद्या चहुदे प्रकासी। कलामंड चौबीसकी रुपरासी
तुंही बिसवकर्ता तुंही बिसवहर्ता। तुंही स्थावर जंगममें प्रवरता
दुर्गा देबि बन्दे सदा देव रायं। जपे आप जालंधरी तो सहाये
दोहा - करै बिनती बंदिजन सन्मुख रहे सुजान
प्रगट अंबिका मुख कहै मांग चंद बरदान
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