सोमवार, 30 दिसंबर 2013

माँ ओ माँ!!: Maa o Maa : Sanjay Mehta Ludhiana







माँ ओ माँ!!

जगज्जन्नी महामाये ! सृष्टि और प्रलय, जीवन और मृत्यु सूत्र को अपने हाथो में लेकर जब तुम एक बार अटटहास करती हो तो उसमे कोटि - कोटि बृह्मांड बनते और बन-बन कर मिट जाते है। माँ , सृष्टि तुम्हारा लास्य और प्रलय तांडव है। तुम करालकाल हो, महामृत्यु हो। सृष्टि के पूर्व केवल तुम्ही थी और प्रलय के अनंतर तुम्ही रह जाती हो। जय माता दी जी



काली , दुर्गा और शक्ति तुम्हारा ही नाम है , रक्तीबीजो से जब संसार का पुण्य त्राहि - त्राहि करने लगता है , जब धर्म को कही शरण नहीं मिलती तब देवि! तुम खप्पर और करवाल लेकर अवतार लेती हो। ओ माँ , तुम्हारा यह रूप कितना भीषण, कितना रौद्र है। माँ! तुम्हारा यह विकट रणतांडव! चण्डिके! दुर्गे! माँ कालिके! तुम्हारा यह रूप देखकर तो ह्रदय भय से थर-थर कांप रहा है ! यह भीषण रौद्र रूप! घने-घने काले केश खुले हुए है। काला डरावना भैरव वेश! मस्तकपर नेत्र से क्रोधाग्नि धधक रही है। उससे प्रखर दाह का ज्वाला धायँ- धायँ कर रही है। ऐसा प्रतीत होता है मानो समस्त संसार इस क्रोधाग्नि में भस्म हुआ जा रहा है। दुर्गे , तुम्हारे इस तीसरे नेत्र की ज्वाला !! तुम्हारी और भी दोनों लाल लाल आँखों से चिंगारियां बरस रही है। उससे कराल किरणे फूटी निकलती है। माँ भैरवि! तुम्हारे मस्तक पर सिन्दूर का जो बड़ा टीका लगा है वह भी कितना भयावना है






और गले की मुण्डमाला! उफ़ ! इतना भैरव, इतना प्रकुप्त ! माँ! तुम्हारा चंद्रहार नरमुण्डमाल का क्यों ? यह दुहरी-तिहरी मुण्डमाला। कितना भायनक , कितना बीभत्स! उन नरमुण्डों के मस्तक पर तुमने श्मशान का भस्म लगाकर इंगुर की बेंदी लगा दी है ! माँ! यह कैसा विकरण प्रलयंकर रूप! उफ़! तुम्हारी लाल-लाल जीभ छाती तक लटक रही है और उससे खून टप-टप चू रहा है। दाहिने हाथ में करवाल है और बायें हाथ में खप्पर! करवाल भी खून से लथपथ है। और तुम्हारा यह खप्पर ! रक्त से भरा खप्पर! ना, ना ; यह खप्पर कभी भी भरेगा? जब तुम अटटहास करके शत्रु पर झपटती हो उस समय माँ। इस खप्पर के रक्त में एक आंदोलन उठ खड़ा होता है। उफ़ ! तुम्हारी प्यासी तलवार! तुम्हारा लोहू-भरा खप्पर! तलवाल की प्यास ना बुझेगी। ना यह खप्पर ही कभी भर पायेगा। सिंहवाहिनी माँ। जब तुम सिंह के समान असुरो पर झपटती हो उस समय तुम्हारे मुक्त कुंतल फहरा उठते है - आँखों से आग बरसने लगती है। लपलपाती हुई जीभ - असुरो के रक्त पीने कि अभ्यस्त जीभ ! अनादि काल से तुम असुरो के महानाश में सलंग्न हो , पर तुम्हारा खप्पर ना भरा, करवाल की प्यास ना बुझी , रक्त्त पीने से तुम्हारा जी ना भरा ! पियो, पियो भगवती भैरवि! जगज्जन्नी दुर्गे! असुरसंहारिणी कालिके! पियो, पियो रक्तबीजों का लोहू! उफ़! यह कितना रौद्र, माँ ! जब तुम अपने अधरो को खप्पर से सटाकर रक्त पीने लगती हो - उस समय , उस समय जब एक क्षण के लिए अपने उन्मद नेत्रो को ऊपर उठाकर नेक मुस्का देती हो!! फिर खप्पर में मुंह सटाकर जब उसमे अपनी कराल काल- सवरूपिणिस्पस्पाति हुई जिह्वा डुबोती हो!! माँ चामुण्डे ! पियो, पियो , असुरो के रक्त को पियो



माँ अपनी ज्वाला आप ही सँभालो। यह ज्योति मुझसे सही नहीं जाती, दयामयी जननी! अपना रौद्र रूप समेट लो. माँ भैरवि! मुझे अपने सौम्य रूप की भी झांकी लेने दो माँ ! दयामयी माँ

माँ ! तुम्हारा यह सौम्य, शांत, पावन, कोमल करुणप्रेमिल रूप ! महामाये ! महादुर्गे! माँ शक्ति ! तुम्हारा यह स्नेहिल रूप कितना पावन, कितना सौम्य है माँ !

माँ सरस्वती ! माँ ओ माँ तुम्हारा यह मंगलरूप ! तुम्हारा यह कल्याणरूप ! तुम्हारी यह स्निग्ध शीतल कांति ! आह! ह्रदय श्रद्धा और प्रेम से तुम्हारे चरणो में नत है माँ, माँ संजय मेहता का प्रणाम स्वीकार करो माँ

माँ तुम्हारा यह हृदयहारी रूप ! श्वेत - पद्म की सुविकसित पंखुड़ियों पर तुम सुखासीन हो , तुम्हारा वाहन हंस जल के केलि - करोल कर रहा है माँ। दिव्या वीणा के स्वर्गीय तारो पर तुम्हारी कोमल - कोमल अँगुलियाँ नाच रही है माँ। एक हाथ में वेद है , और दूसरे हाथ की अभय - मुद्रा! धप -धपाती हुए स्निग्ध -कोमल धवल कांति ! कितनी भव्य, कितनी चित्ताकर्षक पावन मंगल - मूर्ति है , ह्रदय पावनता का महासमुन्द्र उमड़ रहा है माँ , प्राणो में तुम्हारी स्निग्ध - कोमल मधुर कांति प्रेम भर रही है , तुम विद्या , बुद्धि , विवेक और ज्ञानकी देवी हो माँ , कैसा मंगलमय है तुम्हारा रूप माँ अब कहिये जय माता दी जी



माँ! महालक्ष्मी भी तो तुम्ही हो। सकल ऋद्धि-सिद्धि कि अधिष्ठात्री , समस्त वैभव की जननी, समस्त सुख - सुहाग- ऐश्वर्य की दात्री माँ ! रक्त - कमल पर तुम्हारे कोमल चरण समासीन है। कैसा सुंदर रूप है माँ , संजय का प्रणाम स्वीकार करो माँ। लाल रेशमी साडी पहिने हुए। एक हाथ में कमल है , दूसरे में शंख , और अभयदान दे रही हो तीसरे हाथ से , तुम्हारी आँखों से कैसी स्निग्ध - ध्युति छलक रही है - और सरोवर में खिले हुए कमलो के बीच एक श्वेत गज अपनी सूंड में कमल की माला लेकर तुम्हारे चरणो में समर्पित करने के लिए उत्सुक है माँ। ओ माँ। इस रूप में समस्त विश्व , कोटि - कोटि बृह्मांड तुम्हारे चरणो में अपना ह्रदय-कमल समर्पित कर रहे है , माँ नारायणी , तुम्हारी जय हो माँ , जय हो माँ अब कहिये जय माता दी जी . जय जय माँ



देवि! जगज्जन्नी महामाये! तुम्हारा सरस्वती और लक्ष्मी रूप कितना सौम्य और कितना स्निग्ध है। जी चाहता है , अपने को चढ़ा दू इस मधुर मनोहर देवी के पदपद्मों पर। माँ ! तेरी झांकी बनी रहे - इससे अधिक इस आतुर ह्रदय के लिए क्या चाहिए माँ , संजय का प्रणाम स्वीकार करो माँ
ऐ जगज्जन्नी महासती पार्वती तुम्हारा ही नाम है तुम्ही ने त्रिभुवन मोहन शंकर ने वरा था। माता पार्वती ! तुम्हारे पावन चरणो में मेरा कोटि कोटि प्रणाम है। देवता के साधन में तुम्हारी कठोर तपश्चर्या ! 'बरौं संभु न त रहौं कुँवारी" की तुम्हारी भीषण प्रतिज्ञा और उस प्रतिज्ञा की पूर्ति के लिए जीवन को तपस्या की आग में झोंककर, निरावरण होकर सर्वशून्य होकर अपने प्राणनाथ के चरणो में सर्वात्मसमर्पण !

प्रेम कैसी विकार परीक्षा थी , सप्तऋषि आये और तुम्हे विचलित करने की चेष्टा करने लगे। उस समय तुमने जिस अविचल श्रद्धा, अगाध प्रेम और अटूट भक्ति का परिचय दिया था। उसके जोड़ का संसार में नहीं मिला . आज भी स्त्रियां मांग में सेंदुर देते समय सतीत्व के आदर्शरूप में माता गौरा - पार्वती का ध्यान करके उनकी मान में सिन्दूर सभक्ति डाल देती है। आज भी संसार में जहाँ सतीत्व की बात आती है वहाँ , माँ अन्नपूर्णे ! परमकल्याणी देवि! तुम्हारा ही नाम गर्व के साथ लिया जाता है। सतीत्व के आदर्श रूप में तुम्हारा गुणगान समस्त विश्व कर रहा है और इसी प्रेम ने तुम्हे शिव के चरणो में पहुंचाया माँ - अब कहिये जय माता दी


माँ! तुम्हारा रूप कैसा मंगलरूपहै , कैसा अपूर्व तुम्हारा परिवार और कैसा अपूर्व है उनके वाहन ! मेरे सम्मुख जो मूर्ति है माँ वह तो बहुत ही आह्लादकारी और वात्सल्यपूर्ण है माँ। तुम मगलमूर्ति शिशु गणेश जी को गोद में लेकर सोने के कटोरे में रखी हुई मिठाई खिला रही हो और गणेश जी कभी-कभी अपनी सूंड सवयं कटोरे में डूबा देते है। भगवान् शंकर यह देखकर मुस्करा रहे है माँ ! तुम्हारे कोमल चरण - कमलो में सदा सभक्ति कोटिश: प्रणिपात है माँ मेरा। जय माता दी जी



सीता और राधे भी तुम्ही हो अम्बे ! पातिव्रत्य के आदर्शरूप में सीता और प्रेम के आदर्शरूप में राधा तुम्हे हो। सेवा, समर्पण, त्याग तथा आत्माहुति में सीता और राधा संसार में सदा के लिए अमर है
जय माता दी जी









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