मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

अम्बे : Ambe : By Sanjay Mehta Ludhiana









अम्बे

जननी तृप्त होती लख लाल-मुख-लाली को , अम्बे! तुम्हे कैसे प्रिय रक्त रक्त-धारा है?
मेधा-सवरूपा सब मानवों में रहती तुम्हे, मदिरा, ग्राम्यधर्मादि कैसे तुम्हे प्यारा है ?
हरती हो सदासे दुष्ट-दानवोके प्राणोको, बकरोंके प्राण लेना काम क्या तुम्हारा है ?
मै तो सोचता हु, मति-मन्द विषयसक्तोका, शाकम्भरी! यहाँ बुद्धि-विभ्रम हमारा है
कैसे वैपरीत्य, हैम होते हुए भी शाक्त, सर्वथा निशक्त आज भारत में हो गये
वे कीर्ति, श्री, वाक्,स्मृति, मेधा,धृति,क्षमा प्रभूति, सारे-के-सारे गुण हमारे आज खो गये
अब भी कृपाण क्या चलाते उन छागोंपर, जब कि प्रचंड शत्रु चारो और हो गये
चण्डिके! जगा दो आज अपने प्रिय पुत्रोको, उषा-काल में जो अलसाकर है सो गये
जय माता दी जी










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