जीव जैसा कपटी और ईश्वर जैसा भोला और कोई नहीं है। दूसरो के लिए कुछ करना पड़े तो तकलीफ - सी होती है , परन्तु अपनों के लिए करना हो तो आनंद होता है। रात को ग्यारह बजे कोई साधू आएगा तो उनसे पूछा जायेगा कि महाराज, चाय लाऊं या दूध। मन कहेगा कि इतनी रात गए यह बला कहाँ से आ पड़ी। विवेक तो करना ही पड़ता है। महाराज सरल होंगे तो कहेंगे कि सुबह से भूखा हु, पूरी बना डालो। किसी का पत्र लेकर आये है अत: बनाना पड़ेगा ही , किन्तु खाना बनाने के साथ - साथ बरतनो की ठोकपीट भी सुनाई देगी , पर यदि नैहर से अपना भाई आएगा और कहेगा कि मैंने नाश्ता कर लिया , अत: भूख नहीं है , फिर भी वह कहेगी कि नहीं , तू भूखा है , मै अभी हलवा - पूरी बना देती हु। कोई देरी नहीं होगी। अपने भाइयों को तो हलवा पूरी खिलायेगी और महाराज को चाय से ही टाल देगी। यह सब मन के खेल है , मन बड़ा कपटी है , 'मेरा और तेरा' का खेल इस मन ने ही रचा है। सचमुच मन ही बंधन और मोक्ष का कारण है मन जो विषयों में आसक्त हो जाए तो वह बंधन का कारण बनता है और वही मन यदि परमात्मा में आसक्त हो जाए तो मोक्ष का कारण बनता है। अब कहिये जय माता दी जय श्री राम जय जय माँ
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