शनिवार, 18 जनवरी 2014

भवानी - स्तुति : Bhawani Stuti : Sanjay Mehta Ludhiana











हे शैलन्द्रतनये , शास्त्र एवं संत यह कहते है कि तुम्हारे पलक मारते ही यह संसार प्रलय के गर्भ में लीन हो जाता है पलक खोलते ही यह फिर से प्रकट हो जाता है , संसार का बनना और बिगड़ना तुम्हारे लिए एक पलक का खेल है , तुम्हारे एक बार पलक उघाड़ने से यह संसार खड़ा हो गया और एकबारगी नष्ट ना हो जाए , मालूम होता है , इसलिए तुम कभी पलक गिराती ही नहीं , सदा निनिर्मेष दृष्टि से अपने भक्तो कि और निहारती रहती हो। अब कहिये जय माता दी जी



'हे शिवे, अधखिले नीलकमल के समान कांतिवाले अपने विशाल नेत्रों से तुम्हारे सुरमुनिदुर्लभ चरणो से बहुत दूर पड़े हुए मुझे दीन पर भी अपनी कृपापियूष की वर्षा करो। तुम्हारे ऐसा करने से मै तो कृतार्थ हो जाऊँगा और तुम्हारा कुछ बिगड़ेगा भी नहीं। क्युकि तुम्हारी कृपा का भंडार अटूट है , मुझ पर कुछ छींटे डाल देने से उसका दिवाला नहीं निकलेगा माँ। फिर तुम इतनी कंजूसी किसलिए करती हो माँ , क्यों नहीं मुझ संजय को एक बार ही सदा के लिए निहाल कर देती , चंद्रमा अपनी शीतल किरणो से सभी जगह समान रूप से अमृत वर्षा करता है। उसकी दृष्टि में एक वीरान जंगल और किसी राजाधिराज की गगनचुम्बिनी अट्टालिका में कोई अंतर नहीं है। फिर तुम्ही मुझ दीन पर क्यों नहीं ढरती हो माँ , मुझ से इतना अलगाव क्यों कर रखा है माँ ? क्या इस प्रकार वैभव तुम्हे शोभा देता है माँ ? नहीं , नहीं माँ , कदापि नहीं , अब कृपया शीघ्र इस दीन को अपनाकर अपने शीतल चरणतल में आश्रय दो माँ , जिससे यह संजय मेहता सदा के लिए तुम्हारा क्रीतदास बन जाए , तुम्हे छोड़कर दूसरी और कभी भूलकर भी ना ताके माँ। जय माता दी


घी , दूध , अंगूर अथवा शहद का स्वाद कैसा है , और उनके स्वाद में क्या - क्या अंतर है -- इसे हम शब्दो द्वारा अलग-अलग करके किसी प्रकार भी नहीं समझा सकते , चाहे हम कितने ही पंडित और शब्दशास्त्री क्यों ना हो , इसका तो हम रसनेन्द्रिय के द्वारा अनुभव ही कर सकते है , दूसरे को समझा नहीं सकते। इसी प्रकार , हे देवि , तुम्हारी अनुपम छवि का कोई वर्णन नहीं कर सकता , वह तो केवल परमशिव के प्रत्यक्ष का ही विषय है , सौंदर्य की तो बात ही क्या , तुम्हारे और -और गुणो का भी कोई वर्णन नहीं कर सकता। वेद और उपनिषद भी हार मान जाते है 'नेति, नेति कहकर ही अपना पिंड छुड़ाते है -- जय माता दी जी


'संसार में लोग अनेक प्रकार के गुणो से युक्त पत्तोवाली लता का ही आदरपूर्वक सेवन करते है , परन्तु मेरा अपना मत तो यह है कि जगत में सब लोगो को अर्पणा (बिना पत्तो की बेल अर्थात देवी पार्वती , जो इस नाम से प्रसिद्ध है ) का ही सेवन करना चाहिए, जिसके संसर्ग से पुराना स्थाणु (ठूंठ अर्थात देवाधिदेव महादेव , जो संसार के आदिकारण होने से सबसे पुराने तथा सर्वगत अक्रिय , अपरिणामी एवं निर्विकार होने के कारण 'स्थाणु' अर्थात अविचल कहलाते है ) भी मोक्ष रूपी फल देने लगता है , तातपर्य यह है कि 'सदाशिव' नाम से अभिहित निर्गुण परमात्मा सर्वथा क्रियाशून्य होने से उनके द्वारा अथवा उनकी कृपा से मोक्ष आदि फल की प्राप्ति असम्भव है , उनके शक्तिसमन्वित अर्थात सगुण एवं सक्रिय होने पर ही उनके द्वारा इस प्रकार आदान - प्रदान की क्रिया सम्भव है। जय माता दी जी



'हे देवि, मुझ शरणागत पर शीघ्र ही अपने कृपाकटाक्ष का निक्षेप कर मुझे कृतकृत्य करो। माना कि मेरा आचरण साधुओंके से नहीं है , किन्तु मै तुम्हारी शरण में तो चला आया हु। क्या शरण में आये हुए कि तुम्हे उपेक्षा करनी चाहिए ? यदि शरण में चले आने पर भी शरणार्थी के सम्बन्ध में तुम यह विचार करोगी कि उसके आचरण उत्तम है या नहीं और मुझ जैसे मंद आचरण वाले से बेरुखी का बर्ताव करोगी माँ तो फिर तुमसे और दूसरे देवताओं में अंतर ही क्या रह गया माँ। कल्पवृक्ष के नीचे चले जाने पर भी यदि किसी की इच्छा पूरी ना हो तो फिर उसमे और साधारण वृक्षो में क्या अंतर है माँ ? कल्पवृक्ष का धर्म ही है अर्थार्थी की कामना को पूर्ण करना . फिर तुम अपने धर्म को कैसे छोड़ सकती हो माँ। तुम्हे अपने विरद की रक्षा के लिए ही मेरी बाहँ पकडनी ही होगी माँ , मुझ संजय को अपने शरण में लेना ही होगा माँ। यदि मेरा परित्याग करती हो माँ तो साथ-ही-साथ अपनी शरणागतवत्सलता का बाना भी छोड़ना होगा माँ , जय माता दी जी। । माँ प्यारी माँ। … जय माँ वैष्णो रानी। । माँ माँ माँ


'हे उमे , हे लम्बोदरजननी , मुझे तुम्हारे चरणकमलो का ही पूरा - पूरा भरोसा है , अन्य किसी देवता का सहारा नहीं है माँ , फिर भी तुम्हारा ह्रदय यदि मेरे प्रति दयार्द्र नहीं होता तो मै अवलम्ब्हीन किस की शरण में जाऊँगा। सब और से मुंह मोड़कर तो तुम्हारा आश्रय गृहण किया है , तुम्हे यदि मुझे दुत्कार दोगी माँ तो फिर मुझे कौन अपनी शरण में लेगा। अत: मुझ निराश्रय को आश्रय देना ही होगा माँ। जय श्री राम जय माता दी जी



'पारसमणि का सपर्श पाते ही लोहा तत्काल सोना बन जाता है और नाले का गन्दा पानी भी जगत्पावनी गंगा जी की धारा में मिलकर सवयं जगत्पावन हो जाता है। फिर एनेक प्रकार के पापों से कलुषित हुआ मेरा मन क्या तुम्हारे प्रेम को प्राप्त करके भी निर्मल नहीं होगा माँ , अवश्य होगा माँ। ' महात्मा सूरदास जी ने भी अपने एक पद में इसी प्रकार के भाव प्रकट किये है। वे कहते है

एक नदिया , एक नाल कहावत , मैलो नीर भरो।
दोउ मिलकै जब एक बरन भयो , सुरसरि नाम परो। ।
एक लोहा पूजा में राख्यो , एक घर बधिक परो।
पारस गुण-अवगुण नहीं चितवै , कंचन करत खरो। ।

अब कहिये जय माता दी जी



'तुम्हारे अतरिक्त जो दूसरे देवता है उनके द्वारा उनके उपासको को इच्छित फल की प्राप्ति हो ही, ऐसा नियम नहीं है , क्युकि प्रथम तो वे सर्वसमर्थ नहीं है , वे अपनी अपनी शक्ति के अनुसार ही अपने उपासको की इच्छा को पूर्ण कर सकते है। अपनी सामर्थ्य से अधिक वे नहीं दे सकते। फिर जो कुछ भी वे देते है उसके लिए मूल्य भी पूरा-पूरा वसूल करते है। मूल्य पूरा अदा ना करने से अथवा साधन में किसी प्रकार की त्रुटि रह जाने पर अथवा विधि में वैगुण्य होने से वे इच्छित फल , सामर्थ्य होने पर भी , नहीं देते। तुम्हारी बात कुछ दूसरी ही है माँ . तुम तो अपने भक्तो को उनकी इच्छा से अधिक भी दे सकती हो। किसी भक्त ने अपने भगवान् के प्रति कहा है --

'हो तुषित आकुल अमित प्रभु, चाहता जो तुमसे नीर।
तुम तृषाहारी अनोखे उसे देते सुधाक्षीर। ।



बात यह है कि हम अल्पज्ञ जीव तुम्हारी अतुल सामर्थ्य को ना जानकार तुमसे बहुत छोटी - छोटी चीजे मांग बैठते है , किन्तु तुम इतनी दयालु हो माँ कि हमें आशातीत फल प्रदान करती हो। तुम सर्वज्ञ हो , अत: हमारी आवश्कताओं को भलीभांति समझकर हमारे लिए जो उचित होता है वही करती हो माँ। और देवता तो हमारी सांसारिक इच्छाओ को पूर्ण करके ही अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझ लेते है किन्तु तुम हमारी सांसारिक कामनाओ को भी पूर्ण करती हो माँ और साथ ही साथ अपनी विमल भक्ति भी देती हो माँ।


ब्र्ह्मादिक पूर्वजोंने तुममे और अन्य देवताओ में यही अंतर बताया है। इस लिए मेरा मन रात-दिन तुम्हारा ही चिंतन करता रहता है माँ , तुम्हे से लौ लगाये हुए है। हे परमेश्वरी! अब जैसा उचित समझो करो। चाहो तारो चाहो मारो माँ , मै तो तुम्हारी ही शरण में पड़ा हु। तुम्हे छोड़कर कहाँ जाऊ माँ , किसकी शरण लूं ? मुझ जैसे अधमो को और कहाँ ठिकाना है माँ। आश्रयहीन को आश्रय देनेवाला तुमसे बढ़कर कहाँ पाउँगा माँ। तुम्हे बताओ माँ। अब कहिये जय माता दी। जय माँ दुर्गे


"कैलाश में तुम्हारा घर है , जो सारी समृद्धियों की खान है तथा जहाँ की शोभा को स्वर्गादि लोक भी नहीं पा सकते, ब्र्ह्मा और इंद्र आदि देवगन , जिनसे बढ़कर इस संसार में कोई नहीं है। बंदीजनों की भाँती तुम्हारी विरदावली का बखान करते रहते है माँ , सारी त्रिलोकी तुम्हारा कुटुंब है माँ , तुम्हारी दृष्टि में कोई पराया है ही नहीं माँ। आठो सिद्धियाँ हाथ जोड़े तुम्हारे दरवाजे पर खड़ी रहती है और तुम्हारी आज्ञा की प्रतिज्ञा करती रहती है। सवयं देवाधिदेवमहादेव, जो सारे संसार के स्वामी है और साक्षात परब्र्हमसवरूप है तुम्हारे प्राणपति है और नगाधिराज हिमालय तुम्हारे पिता है , तुम्हारी महिमा कि भला कौन समता कर सकता है माँ। अब कहिये जय माता दी। जय जय माँ (संजय मेहता)








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