रविवार, 2 सितंबर 2012

ठाकुर जी का प्रसाद By Sanjay Mehta Ludhiana









अनेक बार यहाँ तक होता है कि रसना का लाड करने के लिए कितने ही ठाकुर जी का बहाना करते है कि भगवान के लिए कुछ बनाओ न ? भगवान के लिए कराने कि इच्छा हो 'ठाकुर जी आरोगने वाले हो, मै परमात्मा के लिए करता हु - ऍसी भावना हो, तो यह भक्ति कही जाती है . यह बहुत ठीक बात है. परन्तु उस सामग्री में प्रभु को अर्पण करने के बाद इस प्रसाद में तुम्हारी थोड़ी भी वासना हो तो यह भक्ति नहीं
थोडा प्रसाद था और अचानक दस-पन्द्रह वैष्णव आकर खड़े हो गये. तब कितने ही होशियारी करते है कि थाली को अंदर ढककर रख दो. ये तो पन्द्रह-बीस लोग है, इन सबको देने बैठू तो फिर अपने कुछ बचेगा ही नहीं. इन सब को सकरकंदी दे देने से चलेगा. इन सबके जाने के बाद अपने घर के सभी इकठ्ठे होकर प्रसाद लेंगे. मंदिर में मुखियाजी मोहनभोग अंदर रख लेते है और भक्तो को चरणामृत दे देते है, तुलसी दे देते है, अरे , तुम मोहनभोग बाहर निकालो ना... परन्तु मुखियाजी समझते है कि मोहनभोग भक्तो को दे दूंगा तो फिर मेरे लिए क्या रहेगा? :)
भगवान का प्रसाद तुम्हारे घर जो आवे उसी को देना. भगवान हजार मुखो से आरोगते है. गरीब के मुख से आरोगते है, वैष्णवों के मुख से आरोगते है.. पवित्र ब्राह्मणों के मुख से आरोगते है, गौ के मुख से आरोगते है, अग्नि से आरोगते है. तुम्हारे माता - पिता के मुख से आरोगते है.
अब बोलिए जय श्री कृष्णा. जय श्री राधे माई प्यारी माई. जय दुर्गा माई, जय राज रानी माई. जय वैष्णो माई

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Sanjay Mehta








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