शनिवार, 2 जून 2012

वाणी : Vaani By Sanjay Mehta, Ludhiana







साधक चिडचिडे स्वभाव का ना हो उसे तुनक मिजाज नहीं होना चाहिय वह "अचवले"- अचपल हो चपलता का परित्याग करे साथ ही साथ वह अप्प्भासी" अल्पभाषी हो परिमित्भोजी हो
यध्यपि बिना बोले हमारा व्यवहार चल नहीं पाता बोलना आवश्यक है, पर भाषा-सिमित का ध्यान रखे "ना पुट्ठो वागरे किंची" बिना पूछे कुछ नहीं बोले. यह एक सूत्र हमारे जीवनक्रम को परिवर्तित करता है. पर सामान्यत: लोगों को बोलने का नशा सा होता है. बोले बिना रहा नहीं जाता. इस लिए ज्ञानियो ने कहा "वाचो वेंग" वाणी का भी वेग होता है. वह प्रवाह रुकना नहीं चाहता.. हम प्रत्यक्ष देखते है, बिलकुल छोटे बच्चे जो बोलने में असमर्थ होते है, वे भी होंठो- होंठो में कुछ बुदबुदाते रहते है, बुजुर्ग संत एक रूपक फरमाया है . जरा ध्यान से पड़े



एक बार देवलोग की गौ नंदनी आकाश मार्ग से विहरण कर रही थी. पृथ्वी पर उसे जों का खेत लहलहाता नजर आया, हर- भरा खेत देखकर नंदनी के मुह में पानी भार आया, वह खेत में आई और जों चरने लगी, जी भर कर जों चरे और वापस देवलोक लौट गई, जों का उसे ऐसा स्वाद आया की वह प्रितिदिन उसी खेत में आने लगी, रात को अँधेरे में कोई उसे देख भी नहीं पाता. जाट का पुत्र खेत की रखवाली के लिए खेत में हो सोया करता था. उसने सुबह जब चरा हुआ खेत देखता तो हैरान हो जाता. खेत के सारे रस्ते पूर्ववत बंध थे, सारी रात वह पहरा देता रहा फिर यह सब कैसे हुआ. आखिर जौं चुराकर कौन ले गया? तीन-चार दिन निरंतर ऐसा हुआ तो बहुत सारा खेत खाली हो गया. जाट का बेटा पूरी तरह चौकन्ना हो गया तथा उसने निश्चय किया के अब रात में एक मिनट भी नींद नहीं लूँगा. रात को वह घूम रहा था और नंदिनी आ उतरी. वह मस्ती से जौं चरने लगी, जाट के बेटे ने ज्यो ही देखा, वह लाठी लेकर उसे मारने दौड़ा, मनुष्य की भाषा में नंदिनी ने कहा. अरे किसान! यह तो तेरा परम सौभाग्य है कि मै स्वर्ग का नंदन वन छोड़कर तेरे खेत में आई हु, क्रोध में आकर जाट के बेटे ने कहा. जौं तू खाएगी तो हम क्या खायेंगे. हमने खेत तेरे लिए तो नहीं बोया? भले ही तू देवलोक की गौ हो. मुझे इससे क्या मतलब?

नंदनी ने कहा . देवलोग के और सब कुछ उपलब्ध है, किन्तु ये हरे-भरे जौं के बूटे नहीं, उनके बदले मै तुम्हे कुछ भी दे सकती हु. पर जों तो मै अवश्य खाऊँगी - मुर्ख जाट-पुत्र ने कहा - क्या जौं के बदले मुझे लड्डू खाने को मिल सकते है, हमारे यहाँ तो जौं बाजरे कि रोटी और छाछ नसीब होती है. नंदनी ने हां कर दी और जाट पुत्र को अपनी पूंछ के सहारे आकाशमार्ग कि सैर करवाती हुए स्वर्ग ले गई और ऍसी मिठाइयाँ खिलाई, जिनका उसने नाम तक भी नहीं सूना था. वह त्रप्त हो गया तो नंदनी पूंछ के सहारे ही उसे वापस छोड़ गई

अब तो यह रोज का क्रम बन गया , नंदनी जों खाती और वह लड्डू ....
कुछ दिन बाद एक दिन जाट स्वय खेत पर आया , उस ने देखा लगभग सारा खेत खाली पड़ा है, फसल कहा है, उसने बेटे से कहा. बेटा चुप रहा. जाट समझ गया कि चोरी इसकी जानकारी में हुई है, उसने लट्ठ उठा लीया तो घबरा कर जाट के बेटे ने सारी बात उगल दी. किसान ने कहा - बेवकूफ खेत तो सबका है और लड्डू तू अकेला खता है, हम सब को भी खिलवा. पुत्र ने कहा मै आज नंदनी से बात करूँगा.

रात को जब नंदनी खेत में उतरी तो किसान के बेटे ने सारी स्तिथि सामने रखी तो नंदनी ने कहा तुमने तो देखा ही है , स्वर्ग में मिश्टानो की कोई कमी नहीं चाहे सबको खिला दिए जाये , तुम कल सब को बुला लेना.

अगले दिन परिवार के छोटे बड़े सभी सदस्य खेत में इकट्ठे होकर बड़ी उमंग एवम आतुरता से नंदनी की परीक्षा करने लगे, इतने मै नंदनी उतर आई, जौं वरने के पछ्चात सबको स्वर्ग ले जाने की व्यवस्था हुआ. नंदनी ने कहा. किसान पुत्र! तू सदा की भांति मेरी पूंछ पकड़ लेना, उसके बाद एक एक कर कर सब एक दुसरे के पाँव पकड़ लेंगे. , जब नंदनी उची उठी उसने पूंछ पकड ली, बड़े भई ने उसके पाँव पकड लिए, छोटे ने बड़े के इस प्रकार बड़ी लम्बी पंक्ति बन गई, नंदनी वायु वेग से आगे बढ़ने लगी. जों व्यक्ति कुछ नीचे था. उसने किसान के पुत्र से पूछा की हम सबको कहा ले जाया जा रहा है? वहा के लड्डू कितने बड़े बड़े है? हम भूखे तो नहीं रह जायेंगे. मुर्ख किसान - पुत्र को अपनी स्थिति का भान नहीं रहा. उसने शेखी बघारते हुए दोनों हाथो को खुला कर दिया की - "इतने इतने बड़े लड्डू वहां है " लड्डू का आकर बतलाने के उत्साह में नंदनी की पूंछ हाथ से छुट गई, सबके सब नीचे गिर पड़े, काल के गर्त में समा गए, अनावश्यक वाचालता के कारण सबको प्राणों से हाथ धोना पड़ा.

वाणी के पर्वाह में लोग इस प्रकार बह जाते है कि ना कहने वाली बात भी कह डालते है तथा ना प्रकट करने वाले रहस्य प्रकट कर देते है , राजस्थानी भाषा में एक कहावत है - " निकली हलक से तो गई खलक से"

जों बात एक बार मुंह से निकल जाती है वह सारी दुनिया में फ़ैल जाती है, जों निकल गई, उसे वापस नहीं लौटाया जा सकता. मनुष्य मर जाते है पर शब्द नहीं मरते. आज ना द्रोपदी विधमान है ना दुर्योधन , पर द्रोपदी के द्वारा दुर्योधन को कहे गए शब्द "अंधे बाप के बेटे भी अंधे" अभी तक विद्यमान है और भविष्य में भी जब जब लोग महाभारत का इतिहास पढेंगे इस बात को याद करेंगे.


Sanjay Mehta







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