मंगलवार, 12 नवंबर 2013

पारसमणि : Sanjay mehta Ludhiana









एक व्यक्ति को मालूम हुआ कि गंगा किनारे रहने वाले एक संत के पास एक पारसमणि है, पारसमणि पाने कि इच्छा से वह  व्यक्ति संत की  सेवा  करने  लगा।  संत ने कहा  कि मै  गंगा स्नान करने जा रहा हु।  वापस आकर तुझे मै पारसमणि दूंगा।  संत तो ऐसा कहकर चले गए।  अब इस व्यक्ति के मन मै पारसमणि के लिए अकुलाहट बढ़ती गई।  उसने संत की गैरहाजिरी में सारी  झोपडी छान डाली, परन्तु पारसमणि उसके हाथ ना लगी।  संत वापस आए।  संत ने यह जान लिया तो पूछा कि क्या इतना भी    धीरज नहीं है।  पारसमणि तो मैंने उस डिबिया में रखी  है।  ऐसा कहकर उन्होंने एक डिबिया नीचे उतारी।  वह  डिबिया तो लोहे कि थी।  तो उस व्यक्ति ने सोचा कि यह कैसी पारसमणि ही , क्यूकि  जिस डिबिया में वह  पारसमणि रखी  गयी थी , वह  तो लोहे की  थी।  इस पारसमणि ने उस डिबिया को सोने की  क्यों न बनाया?  क्या यह पारसमणि असली है या यह संत मजाक कर रहे है ? उसने संत से पूछा कि यह डिबिया पारसमणि का सपर्श  होने पर भी लोहे कि ही क्यों रह  गई और सोने की क्यों ना बनी?  तो संत ने उसे बताया कि वह  पारसमणि एक गुदड़ी में रखी  थी,  वह आवरण में थी सो डिबिया सोने कि ना बनने पायी।

इसी प्रकार ईश्वर और जीव ह्रदय में एक ही स्थान में रहते है, परन्तु दोनों के बीच माया का पर्दा है , और फलत दोनों का मिलन नहीं हो पाता  अर्थात ईश्वर को जीव पहचान नहीं सकता।  जीवात्मा डिबिया है और ईश्वर पारसमणि।  दोनों के बीच पर्दा है , जिसे हटाना आवश्यक  है

साधना करने पर भी सिद्धि ना मिले तो साधना के प्रति साधक के मन में उपेक्षा भाव जगता है।  जीव साधक है, सेवा-समरण साधन है , श्री कृष्ण साध्य है।  विष्णु भगवन कि भक्ति करना परम धर्म है

लोग मानते है कि भक्ति -मार्ग बिलकुल आसान है।  सुबह भगवान  कि पूजा की  बस हो गई छुट्टी।  फिर वे सारा दिन भगवान्  को भुलाये रहते है।  यह कोई भक्ति नहीं है।  चौबीसों घंटे ईश्वर का समरण रहे, यही भक्ति है।
जय माता दी जी








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