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अंबरीष राजा नीरजला एकादशी का व्रत करते है, शुकदेव जी महाराज इससे प्रसन्न होकर अंबरीष राजा की कथा बहुत प्रेम से कहते है। कोई गरीब व्याक्ति निरजला एकादशी का व्रत करे तो इसमें विशेष आश्चर्य नहीं पर राजमहल में सब कुछ होने पर भी अंबरीष राजा एकादशी का निरजल व्रत करते है। शुकदेव इससे उन्हें बहुत चाहते है। कार्तिक शुक्ल पक्ष द्वादशी का दिन है। द्वारिकानाथ के सम्मुख सुंदर सामग्री रखी है। अंबरीष महाराज द्वारिकानाथ के नाम का जप करते हुए भावना से भोजन ले रहे है आँखे उनकी बंध है
उसी समय वहाँ दुर्वासा ऋषि पधारते है। अंबरीष राजा स्वागत करते है और कहते है - महाराज आपने बहुत कृपा की । भोग की अब तैयारी हो रही है। प्रसाद लेकर पारण कीजिये। दुर्वासा ऋषि ने कहा - अपनी मध्याह्न संध्या करने से पहले , मै कुछ भी नहीं खाता हु
अंबरीष राजा ने कहा - महाराज! मेरा ऐसा नियम है कि त्रयोदशी शुरू होने से पहले द्वादशी का पारण करना है। आप संध्या करके तुरंत ही पधारिये . दुर्वासा ऋषि ने निमंत्रण स्वीकार किया। श्री यमुना जी में स्नान करके वे मध्याह्न संध्या करने बैठे। दुर्वासा ऋषि ने जानबूझ कर विलम्ब नहीं किया है। किन्तु अंबरीष राजा घबरा गए है। सोचते है कि अब द्वादशी पूर्ण होती है। व्रत के नियमानुसार त्रोदशी से पहले मुझे पारण करना है। पारण करता हु तो ब्राह्मण का अपमान है, नहीं करता हु तो व्रत का भंग होता है। एक ब्राह्मण ने सलाह दी - आप ठाकुर जी को अर्पण करके थोडा जल पी लीजिये। निरजल व्रत का पारण जल से कीजिये। ब्राह्मण का अपमान भी नहीं होता - अंबरीष राजा ने जल का पारण लिया और फिर शान्ति से दुर्वासा कि राह देखने लगे।
जब सूर्यनारायण मस्तक तक आ पहुंचे , तब दुर्वासा ऋषि को ख्याल आया कि बहुत देर हो गयी है। मैंने राजा के व्रत का भंग करवाया है। संध्यादिक नित्यकर्म परिपूर्ण करके दुर्वासा ऋषि विचार करते चलते है - शायद राजा ने पारण कर लिए होगा , न , न मेरे जैसे ब्राह्मण को निमत्रण देकर कैसे पारण कर लेंगे ? सोचते - सोचते आ पहुंचे , अंबरीष राजा खड़े हो गए सिमत् करके ऋषि का उन्होंने स्वागत किया
दुर्वासा ऋषि ने अनुमान किया - व्रत का भंग हो तो राजा हंस नहीं सकते . राजा तो प्रसन्न दीख रहे है, मुझे लग रहा है कि राजा ने पारण कर लिए है। दुर्वासा का अनुमान गलत नहीं था . राजा ने पारण किया तो था पर जल से ही किया था। दुर्वासा को लगा कि राजा ने भोजन किया होगा। उन्होंने राजा से कहा - तुमने मुझे निमंत्रण दिया और फिर भोजन क्यों कर लिए ? तुम्हे भक्ति का अभिमान हो गया है क्या ? अंबरीष राजा राजा ने हाथ जोड़कर कहा - महाराज! मैंने आपका अपमान नहीं किया है। मैंने भोजन नहीं किया है, जल ही पी लिया है , पर जिसे क्रोध आ गया हो, वह दुसरे कि बात तक नहीं सुन पाता - दुर्वासा ऋषि ने मस्तक से एक केश निकालकर वहाँ पटका , तुरंत एक भयंकर राक्षसी उत्प्न्न हो गयी, उस कृत्या राक्षसी से ऋषि ने कहा - इस अंबरीष को मार डाल
जैसे ही कृत्या अंबरीष राजाको मारने दौड़ी , वैसे ही सुदर्शन चक्र ने आकर कृत्या को जलाकर भस्म कर दिया . अंबरीष राजा नहीं जाते थे कि सुदर्शन चक्र चारो और से उनका रक्षण कर रहा है। आप जिस देव की प्रेम से पूजा करते है, जिसके नाम का जप करते है , वे देव भले ही दिखाई ना पड़े पर वे आपके साथ रहते है, वे गुप्त रूप से आपका रक्षण करते है, कृत्या को जलाकर भस्म कर देने के बाद सुदर्शन चक्र दुर्वासा के पीछे दौड़ा , सुदर्शन चक्र का तेज दुर्वासा ऋषि से सहन न हुआ। दुर्वासा जी घबराते हुए दौड़ते - दौड़ते बैकुंठ में पहंचे
भगवान् ने कहा - पधारिये पधारिये - दुर्वासा ने कहा - क्या पधारिये ? आपका चक्र मेरे पीछे पड़ा है। भगवान् ने कहा - चक्र मेरा नहीं है, चक्र तो अंबरीष का है
वैष्णव अपना सर्वस्व मुझे अर्पण करते है और इससे मै अपना सर्वस्व वैष्णवो को देता हु। राजा ने आपका अपमान नहीं किया है। आपने बिना कारण क्रोध किया है। आपका अपराध है। दुर्वासा ऋषि ने कहा - अपराध हुआ है तो मै क्षमा मांगता हु। परमात्मा ने कहा - मुझ से क्षमा मांगने से क्या लाभ ? जिसका अपराध किया है, उससे क्षमा मांगिये - दुर्वासा ऋषि ने अंबरीष राजा के चरणो में वंदन करने दौड़े। भगवान् के लाडले भक्त कभी भी सनातन धर्म कि मर्यादा नहीं तोड़ते है। अंबरीष राजा ने कहा - आप वंदन कर रहे है , यह उचित नहीं है। अंबरीष राजा ने सुदर्शन चक्र से प्रार्थना कि , सुदर्शन चक्र का वेग शांत हुआ , अंबरीष राजा ने दुर्वासा को प्रेम से भोजन करवाया , दुर्वासा ऋषि ने राजा को बहुत बहुत आशीर्वाद दिए .
अब कहिये जय माता दी। जय श्री कृष्णा
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उसी समय वहाँ दुर्वासा ऋषि पधारते है। अंबरीष राजा स्वागत करते है और कहते है - महाराज आपने बहुत कृपा की । भोग की अब तैयारी हो रही है। प्रसाद लेकर पारण कीजिये। दुर्वासा ऋषि ने कहा - अपनी मध्याह्न संध्या करने से पहले , मै कुछ भी नहीं खाता हु
अंबरीष राजा ने कहा - महाराज! मेरा ऐसा नियम है कि त्रयोदशी शुरू होने से पहले द्वादशी का पारण करना है। आप संध्या करके तुरंत ही पधारिये . दुर्वासा ऋषि ने निमंत्रण स्वीकार किया। श्री यमुना जी में स्नान करके वे मध्याह्न संध्या करने बैठे। दुर्वासा ऋषि ने जानबूझ कर विलम्ब नहीं किया है। किन्तु अंबरीष राजा घबरा गए है। सोचते है कि अब द्वादशी पूर्ण होती है। व्रत के नियमानुसार त्रोदशी से पहले मुझे पारण करना है। पारण करता हु तो ब्राह्मण का अपमान है, नहीं करता हु तो व्रत का भंग होता है। एक ब्राह्मण ने सलाह दी - आप ठाकुर जी को अर्पण करके थोडा जल पी लीजिये। निरजल व्रत का पारण जल से कीजिये। ब्राह्मण का अपमान भी नहीं होता - अंबरीष राजा ने जल का पारण लिया और फिर शान्ति से दुर्वासा कि राह देखने लगे।
जब सूर्यनारायण मस्तक तक आ पहुंचे , तब दुर्वासा ऋषि को ख्याल आया कि बहुत देर हो गयी है। मैंने राजा के व्रत का भंग करवाया है। संध्यादिक नित्यकर्म परिपूर्ण करके दुर्वासा ऋषि विचार करते चलते है - शायद राजा ने पारण कर लिए होगा , न , न मेरे जैसे ब्राह्मण को निमत्रण देकर कैसे पारण कर लेंगे ? सोचते - सोचते आ पहुंचे , अंबरीष राजा खड़े हो गए सिमत् करके ऋषि का उन्होंने स्वागत किया
दुर्वासा ऋषि ने अनुमान किया - व्रत का भंग हो तो राजा हंस नहीं सकते . राजा तो प्रसन्न दीख रहे है, मुझे लग रहा है कि राजा ने पारण कर लिए है। दुर्वासा का अनुमान गलत नहीं था . राजा ने पारण किया तो था पर जल से ही किया था। दुर्वासा को लगा कि राजा ने भोजन किया होगा। उन्होंने राजा से कहा - तुमने मुझे निमंत्रण दिया और फिर भोजन क्यों कर लिए ? तुम्हे भक्ति का अभिमान हो गया है क्या ? अंबरीष राजा राजा ने हाथ जोड़कर कहा - महाराज! मैंने आपका अपमान नहीं किया है। मैंने भोजन नहीं किया है, जल ही पी लिया है , पर जिसे क्रोध आ गया हो, वह दुसरे कि बात तक नहीं सुन पाता - दुर्वासा ऋषि ने मस्तक से एक केश निकालकर वहाँ पटका , तुरंत एक भयंकर राक्षसी उत्प्न्न हो गयी, उस कृत्या राक्षसी से ऋषि ने कहा - इस अंबरीष को मार डाल
जैसे ही कृत्या अंबरीष राजाको मारने दौड़ी , वैसे ही सुदर्शन चक्र ने आकर कृत्या को जलाकर भस्म कर दिया . अंबरीष राजा नहीं जाते थे कि सुदर्शन चक्र चारो और से उनका रक्षण कर रहा है। आप जिस देव की प्रेम से पूजा करते है, जिसके नाम का जप करते है , वे देव भले ही दिखाई ना पड़े पर वे आपके साथ रहते है, वे गुप्त रूप से आपका रक्षण करते है, कृत्या को जलाकर भस्म कर देने के बाद सुदर्शन चक्र दुर्वासा के पीछे दौड़ा , सुदर्शन चक्र का तेज दुर्वासा ऋषि से सहन न हुआ। दुर्वासा जी घबराते हुए दौड़ते - दौड़ते बैकुंठ में पहंचे
भगवान् ने कहा - पधारिये पधारिये - दुर्वासा ने कहा - क्या पधारिये ? आपका चक्र मेरे पीछे पड़ा है। भगवान् ने कहा - चक्र मेरा नहीं है, चक्र तो अंबरीष का है
वैष्णव अपना सर्वस्व मुझे अर्पण करते है और इससे मै अपना सर्वस्व वैष्णवो को देता हु। राजा ने आपका अपमान नहीं किया है। आपने बिना कारण क्रोध किया है। आपका अपराध है। दुर्वासा ऋषि ने कहा - अपराध हुआ है तो मै क्षमा मांगता हु। परमात्मा ने कहा - मुझ से क्षमा मांगने से क्या लाभ ? जिसका अपराध किया है, उससे क्षमा मांगिये - दुर्वासा ऋषि ने अंबरीष राजा के चरणो में वंदन करने दौड़े। भगवान् के लाडले भक्त कभी भी सनातन धर्म कि मर्यादा नहीं तोड़ते है। अंबरीष राजा ने कहा - आप वंदन कर रहे है , यह उचित नहीं है। अंबरीष राजा ने सुदर्शन चक्र से प्रार्थना कि , सुदर्शन चक्र का वेग शांत हुआ , अंबरीष राजा ने दुर्वासा को प्रेम से भोजन करवाया , दुर्वासा ऋषि ने राजा को बहुत बहुत आशीर्वाद दिए .
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