सोमवार, 20 फ़रवरी 2012

शिवरात्रि - व्रत की कथा : Shivratri ki katha By Sanjay Mehta Ludhiana











अनजाने मे शिवरात्रि - व्रत करने से एक भील पर भगवन शंकर की अद्भुत कृपा




सूत जी संजय मेहता से कहते है की पहले की बात है - किसी वन मे एक भील रहता था. जिस का नाम था गुरुदुह .. उसका कुटुंब बड़ा था तथा वह बलवान और क्रूर स्वभाव का होने साथ ही क्रूरतापूर्ण कर्म मे तत्पर रहता था . वह प्रतिदिन वन जाकर मृगो को मरता और वही रहकर नाना प्रकार की चोरिया करता था. उसने बचपन से कभी कोई शुभ कर्म नहीं किया था. इस प्रकार वन मे रहते हुए उस दुरात्मा भील का बहुत समय बीत गया. तदन्तर एक दिन बड़ी सुंदर एवं शुभकारक शिवरात्रि आई. किन्तु वह दुरात्मा घने जंगल मे निवास करनेवाला था. इस लिए व्रत नहीं जनता था. उसी दिन उस भील के माता - पिता और पत्नी भूख से पीड़ित होकर उस से याचना की "वनेचर! हमे खाने को दो "

उनके इस प्रकार याचना करने पर वह तुरंत धनुष लेकर चल दिया और मृगो के शिकार के लिए सारे वन मे घुमने लगा दैवयोग से उसे उस दिन कुछ भी नहीं मिला और सूर्य अस्त हो गया. उससे उसको बड़ा दुःख हुआ और वह सोचने लगा - 'अब मे क्या करू! कहा जाऊ? आज तो कुछ नहीं मिला.. घर मे जो बच्चे है, उनका तथा माता - पिता का क्या होगा? मेरी जो पत्नी है. उसकी भी क्या दशा होगा? अत: मुझे कुछ लेकर ही घर जाना चाहिए? अन्यथा नहीं' ऐसा सोचकर वह व्याध एक जलाशय के समीप पंहुचा और जहाँ पानी मे उतने का घाट था, वहां जाकर खड़ा हो गया. वह मन-ही-मन यह विचार करता था. की 'यह कोई-ना-कोई जीव पानी पीने के लिए अवश्य आएगा. उसी को मारकर क्र्तक्र्त्य हो उसे साथ लेकर प्रसन्नतापूर्वक घर को जाऊंगा. 'ऐसा निछ्च्य करके वह व्याध एक बेल के पेड़ पर चढ़ गया और वही जल साथ लेकर बैठ गया. उसके मन मे केवल यही चिंता थी के कब कोई जीव आएगा और कब मे उसे मरूँगा. इसी प्रतीक्षा मे भूख-प्यास से पीड़ित हो वह बैठा रहा. उस रात को पहले पहर मे एक प्यासी हरिणी वह आई, जो चकित होकर जोर जोर से चौकड़ी भर रही थी. संजय उस मृगी को देखकर व्याध को बड़ा हर्ष हुआ और उसने तुरंत ही उस के वध के लिए अपने धनुष पर एक बाण का संधान किया.


ऐसा करते हुए उस के हाथ के धक्के से थोडा-सा-जल और बिल्वपत्र नीचे गिर पड़े . उस पेड़ के नीचे शिवलिंग था. उक्क्त जल और बिल्वपत्र से शिव के प्रथम प्रहर की पूजा सम्पन्न हो गई. उस पूजा के म्हाम्त्य से उस व्याध का बहुत-सा-पातक तत्काल नष्ट हो गया. वहा होनेवाली खडखड़ाहट की आवाज को सुनकर हरिणी ने भय से उपर की और देखा. व्याध को देखते ही वह व्याकुल हो गई. और बोली

सूत जी कहते है संजय मेहता , मृगी ने कहा -- व्याध तुम क्या करना चाहते हो मेरे सामने सच - सच बताओ

हरिणी की वह बात सुनकर व्याध ने कहा - 'आज मेरे कुटुंब के लोग भूखे है; अत: तुमको मारकर उनकी भूख मिटाऊंगा, उन्हें तृप्त करूँगा.



व्याध का वह दारुण वचन सुनकर तथा जिसे रोकना कठिन था, उस दुष्ट भील को बाण ताने देखकर मृगी सोचने लगी कि 'अब मै क्या करू? कहा जाऊ? अच्छा कोई उपाए रचती हु.' ऐसा विचारकर उसने वहा इस प्रकार कहा.

मृगी बोली - 'भील! मेरे मांस से तुम को सुख होगा, इस अनर्थकारी शरीर के लिए इससे अधिक महान पुण्य का कार्य और क्या हो सकता है? उपकार करने वाले प्राणी को इस लोक में जो पुण्य प्राप्त होता है, उसका सौ वर्षो में भी वर्णन नहीं किया जा सकता. परन्तु इस समय मेरे सब बच्चे मेरे आश्रम में ही है. मै उन्हें अपनी बहिन को अथवा स्वामी को सौंपकर लौट आउंगी . वनेचर! तुम मेरी इस बात को मिथ्या ना समझो. मै फिर तुम्हारे पास लौट आयुंगी इसमे संशय नहीं है. सत्य से ही धरती टिकी हुई है, सत्य से ही समुंदर अपनी मृयादा में स्थित है और सत्य से ही निर्झरो से जल कि धाराए गिरती रहती है. सत्य मे है सब कुछ स्तिथ है

सूत जी कहते है संजय मेहता - मृगी के ऐसा कहने पर भी जब व्याध ने उसकी बात नहीं मानी, तब उसने अत्यंत विस्मित एवं भयभीत हो पुन: इस प्रकार कहना आरम्भ किया

मृगी बोली - व्याध! सुनो, मै तुम्हारे सामने ऐसी शपथ खाती हु, जिस से घर जाने पर मै अवश्य तुम्हारे पास लौट आयुगी.. ब्राह्मण यदि वेद बेचे और तीनो काल संध्या ना करे तो उसे जो पाप लगता है, पति कि आज्ञा का उल्लंघन कर स्वेच्छानुसार कार्य करनेवाली स्त्रिओ को जिस पाप कि प्राप्ति होती है, किये हुए उपकार को ना मानाने वाले, भगवन शंकर से विमुख रहने वाले, दुसरो से द्रोह करनेवाले, धर्म को लांघने वाले तथा विश्वासघात और छल करनेवाले लोगो को जो पाप लगता है, उसी पाप लगता है, उसी पाप से मै भी लिप्त हो जाऊ, यदि लौटकर यहाँ ना आऊ..

इस प्रकार अनेक शपथ खाकर जब मृगी चुपचाप खड़ी हो गई, तब उस व्याध ने उस पर विश्वास करके कहा - 'अच्छा, अब तुम अपने घर को जाओ' तब वह मृगी बड़े हर्ष के साथ पानी पीकर अपने आश्रम - मंडल मे गई. इतने मे ही रात का वह पहला प्रहर व्याध के जागते - ही जागते बीत गया. तब उस हरिणी कि बहिन दूसरी मृगी, जिस का पहली ने स्मरण किया था, उसी के रह देखती हुई जल पीने कि लिया वहा आ गई.

उसे देखकर भील ने स्वय बाण को तरकस से खींचा. ऐसा करते समय पुन: पहले की भाँती भगवन शिव के उपर जल और बिल्वपत्र गिरे. उसके द्वारा महात्मा शम्भु की दुसरे प्रहर की पूजा सम्पन्न हो गई. यधपि वह प्रसंगवश हो गई थी, तो भी व्याध के लिए सुखदायिनी हो गई. मृगी ने उसे बाण खींचते देख पूछा - 'वनेचर! यह क्या करते हो?' व्याध ने पूर्ववत उत्तर दिया - 'मै अपने भूखे कुटम्ब को तृप्त करने के लिए तुझे मरूँगा.' यह सुनकर वह मृगी बोली

मृगी ने कहा - व्याध! मेरी बात सुनो! मै धन्य हु. मेरा देह-धारण सफल हो गया; क्यों के इस अनित्य शरीर के द्वारा उपकार होगा. परन्तु मेरे छोटे - छोटे बच्चे घर मे है अत: मै एक बार जाकर उन्हें अपने स्वामी को सौंप दू, फिर तुम्हारे पास लौट आउंगी

सूत जी कहते है संजय मेहता - व्याध बोला - तुम्हारी बात पर मुझे विश्वास नहीं है. मै तुझे मरूँगा, इसमे संशय नहीं है.

यह सुनकर वह हरिणी भगवन विष्णु की शपथ खाती हुई बोली. 'व्याध! जो कुछ मै कहती हु, उसे सुनो! यदि मै लौटकर ना आऊ तो अपना सारा पुण्य हार जाऊ; क्योंकि जो वचन देकर उससे पलट जाता है, वह अपने पुण्य को हार जाता है. जो पुरष अपनी विवाहिता स्त्री को त्यागकर दूसरी के पास जाता है, वैदिक धर्म का उलन्घ्न्न करके कपोलकल्पित धर्म पर चलता है, भगवान विष्णु का भक्त होकर शिव कि निंदा करता है. माता - पिता कि निधन - तिथि को श्राद्ध आदि ना करके उसे सुना बिता देता है, तथा मन मे संताप का अनुभव करके अपने दिए हुए वचन को पूरा करता है, इसे लोगो को जो पाप लगता है, वही मुझे भी लगे, यदि मै लौटकर ना आऊ'

सूत जी कहते है संजय मेहता - उसके ऐसा कहने पर व्याध ने उस मृगी से कहा - 'जाओ!' मृगी जल पीकर हर्ष पूर्वक अपने आश्रम को गई. इतने में ही रात का दूसरा प्रहर भी व्याध के जागते-जागते बीत गया. इसी समय तीसरा प्रहर आरम्भ हो जाने पर मृगी के लौटने में बहुत विलम्ब हुआ जान चकित हो व्याध उसकी खोज करने लगा. इतने में ही उसने जल के मार्ग मे एक हिरन को देखा. वह बड़ा हष्ट - पुष्ट था. उसे देखर वनेचर को बड़ा हर्ष हुआ और वह धनुष पर बाण रखकर उसे मार डालने को उद्यत हुआ. ऐसा करते समय उसके प्रारब्ध्व्श कुछ जल और विल्वपत्र शिवलिंग पर गिरे. उससे उसके सौभाग्य से भगवान शिव कि तीसरे प्रहर कि पूजा सम्पन्न हो गई. इस तरह भगवान ने उसपर अपनी दया दिखाई. पत्तो के गिरने आदि का शब्द सुनकर उस मृग ने व्याध कि और देखा और पूछा - ' क्या करते हो?'

व्याध ने उतर दिया - ' मै अपने कुटुंब को भोजन देने के लिए तुम्हारा वध करूँगा' व्याध कि यह बात सुनकर हिरण के मन मे बड़ा हर्ष हुआ और तुरंत ही व्याध से इस प्रकार बोला

हरिण ने कहा - मै धन्य हु. मेरा हष्ट - पुष्ट होना सफल हो गया; क्यों के मेरे शरीर से आप लोगो कि तृप्ति होगी. जिसका शरीर परोपकार के काम में नहीं आता, उसका सब कुछ व्यर्थ चला गया. जो सामर्थ रहते हुए भी किसी का उपकार नहीं करता, उसकी वह सामर्थ्य व्यर्थ चली जाती है. तथा वह परलोक में नरकगामी होता है. परन्तु एक बार मुझे जाने दो. मै अपने बालको को उनकी माता के हाथ में सौंपकर और उन सब को धीरज बंधाकर यहाँ लौट आऊंगा

उसके ऐसा कहने पर व्याध मन-ही-मन बड़ा विस्मित हुआ. उसका ह्रदय कुछ शुद्ध हो गया था और उसके सारे पाप पुंज नष्ट हो चुके थे. उसने इस प्रकार कहा

व्याध बोला. जो जो यहाँ आये, वे सब तुम्हारी ही तरह बाते बनाकर चले गए; परन्तु वे वच्चक अभी तक यहाँ नहीं लौटे है. मृग ! तुम भी इस समय संकट मे हो, इस लिए झूठ बोलकर चले जाओगे, फिर आज मेरा जीवन - निर्वाह कैसे होगा?

मृग बोला - व्याध! मै जो कुछ कहता हु, उसे सुनो. मुझ मै असत्य नहीं है. सारा चराचर ब्रह्मांड सत्य से ही टिका हुआ है. जिसकी वाणी झूठी होती है, उसका पुण्य उसी क्षण नष्ट हो जाता है; तथापि भील! तुम मेरी सच्ची प्रितिज्ञ सुनो , संध्या काल में मैथुन तथा शिवरात्रि के दिन भोजन करने से जो पाप लगता है, झूठी गवाही देने, धरोहर को हडप लेने तथा संध्या ना करने से द्विज को जो पाप होता है, वही पाप मुझे भी लगे, यदि मै लौटकर ना आऊ! जिसके मुख से कभी शिव का नाम नहीं निकलता, जो समर्थ रहते हुए भी दुसरे का उपकार नहीं करता, पर्व के दिन श्री फल तोड़ता , अभक्ष्य - भक्षण करता तथा शिव कि पूजा किये बिना और भस्म लगाये बिना भोजन कर लेता है, इन सब का पातक मुझे लगे, यदि मै लौटकर ना आऊ.

सूतजी कहते है संजय मेहता - s /o श्री सुदर्शन लाल मेहता/राज रानी मेहता - उसकी बात सुनकर व्याध ने कहा 'जाओ , शीघ्र लौटना' व्याध के ऐसा कहने पर मृग पानी पीकर चला गया, वे सब अपने आश्रम पर मिले. तीनो ही प्रतिज्ञाबंध हो चुके थे. आपस में एक - दुसरे के वृतांत भलीभांति सुनकर सत्य के पाश से बंधे हुए उन सबने यही निश्चय किया कि वहा अवश्य जाना चाहिए. इस निश्चय के बाद वहा बालको को आश्वासन देकर वे सब - के सब जाने के लिए उत्सुक हो गए. उस समय जेठी मृगी ने वहा अपने स्वामी से कहा. 'स्वामिन! आपके बिना यहाँ बालक कैसे रहेंगे? प्रभो! मैंने ही पहले जाकर प्रतिज्ञा कि है, इसलिए केवल मुझ को जाना चाहिए. आप दोनों यही रहे. ' उसकी यह बात सुनकर छोटी मृगी बोलो 'बहिन! मै तुम्हारी सेविका हु. इसलिए आज मै ही व्याध के पास जाती हु. तुम यही रहो.' यह सुनकर मृग बोला -'मै ही वहा जाता हु. तुम दोनों यह रहो; क्योंकि शिशुओ कि रक्षा माता से ही होती है' स्वामी कि यह बात सुनकर उन दोनों मृगियो ने धर्म कि दृष्टि से इसे स्वीकार नहीं किया. वे दोनों अपने पति से प्रेमपूर्वक बोली -'प्रभो! पति कि बिना इस जीवन को धिक्कार है. ' तब उन सब ने अपने बच्चो को सांत्वना देकर उन्हें पड़ोसियो के हाथ मे सौंप दिया और स्वय शीघ्र ही उस स्थान को प्रस्थान किया . जहाँ वह व्याध - शिरोमणि उनकी प्रितिक्षा मे बैठा था. उन्हें जाते जाते देख उनके वे सब बच्चे भी पीछे पीछे चले आये. उन्हों ने यह निश्चय कर लिया था कि इन माता-पिता कि जो गति होगी, वही हमारी भी हो. उन सबको एक साथ आया देखकर व्याध को बड़ा हर्ष हुआ.

उसने धनुष बाण पर रखा . उस समय पुन: जल और बिल्वपत्र शिव के उपर गिरे. उससे शिव कि चौथे प्रहर कि शुभ पूजा सम्पन्न हो गई. उस समय व्याध का सारा पाप तत्काल भस्म हो गया. इतने मे ही दोनों मृगिय और मृग बोल उठा -' व्याध शिरोमने! शीघ्र कृपा करके हमारे शरीर को सार्थक करो.

उनकी यह बात सुनकर व्याध को बड़ा विस्मय हुआ. शिवपूजा के प्रभाव से उसको दुर्लभ ज्ञान प्राप्त हो गया. उसने सोचा -'ये मृग ज्ञानहीन पशु होने पर भी धन्य है, सर्वथा आदरणीय है; क्योंकि अपने शरीर से ही परोपकार मे लगे हुए है. मैंने इस समय मनुष्य - जन्म पाकर भी किसी पुरषार्थ का साधन किया? दुसरे के शरीर को पीड़ा देकर अपने शरीर को पोसा है. प्रतिदिन अनेक प्रकार के पाप करके अपने कुटुंब का पालन किया है. हाय! इसे पाप करके मेरी क्या गति होगी? अथवा मै किस गति को प्राप्त होऊंगा? मैंने जन्म से लेकर अब तक जो पातक किया है, उसका इस समय मुझे स्मरण हो रहा है. मेरे जीवन को धिक्कार है, धिक्कार है' इस प्रकार ज्ञानसम्पन्न होकर व्याध ने अपने बाण को रोक लिया और कहा 'श्रेष्ट मृगो! तुम जाओ.. तुम्हारा जीवन धन्य है'

व्याध के ऐसा कहने पर भगवान शंकर तत्काल प्रसन्न हो गए और उन्हों ने व्याध को अपने सम्मानित एवं पूजित स्वरूप का दर्शन कराया और कृपापूर्वक उसके शरीर का स्पर्श करके उससे प्रेम से कहा 'भील! मै तुम्हारे व्रत से प्रसन्न हु.. वर मांगो वत्स' व्याध भी भगवान शिव के उस रूप को देखकर तत्काल जीवंमुक्क्त हो गया और 'मैंने सब कुछ पा लिया' यो कहता हुआ उनके चरणों के आगे गिर पड़ा. उसके इस भाव को देखर भगवान शिव भी मन-मन-मन बड़े प्रसन्न हुए और उसे 'गुह' नाम देकर कृपा दृष्टि से देखते हुए उन्हों ने उसे देव्या वर दिया

शिव बोले - 'व्याध! सुनो आज से तुम श्रिंगवेरपुर मे उत्तम राजधानी का आश्रय ले दिव्या भोगो का उपभोग करो. तुम्हारे वंश कि वृद्दि निर्विघ्नं रूप से होती रहेगी. देवता भी तुम्हारी प्रशंसा करेंगे. व्याध! मेरे भक्तो पर स्न्नेह रखने वाले भगवान श्री राम एक दिन निश्चय ही तुम्हारे घर पधारेंगे और तुम्हारे साथ मित्रता करेंगे, तुम मेरी सेवा में मन लगाकर दुर्लभ मोक्ष पा जाओगे.

इसी समय वे सब मृग भगवन शंकर का दर्शन और प्रणाम करके मृगयोनि से मुक्त हो गए तथा दिव्या - देहधारी हो विमान पर बैठकर शिव के दर्शन मात्र से शापमुक्त हो दिव्यधाम को चले गए. तब से अर्बुद पर्वत पर भगवन शिव व्यदेश्व्र के नाम से प्रसिद्ध हुए, जो दर्शन और पूजन करने पर तत्काल भोग और मोक्ष प्रदान करने वाली है. संजय! वह व्याध भी उस दिन से दिव्या भोगो का उपभोग करता हुआ अपनी राजधानी में रहने लगा . उसने भगवन श्री राम की कृपा पाकर शिव का सायुज्य प्राप्त कर लिया. अनजाने मे ही इस व्रत का अनुष्ठान करने से उसको सायुज्य मोक्ष मिल गया; फिर जो भक्तिभाव से सम्पन्न होकर इस व्रत को करते है, वे शिव का शुभ सायुज्य प्राप्त कर ले, इसके लिए तो कहना ही क्या है. सम्पूर्ण शास्त्रों तथा अनेक प्रकार के धर्मो के विषय मे भलीभांति विचार करके इस शिवरात्रि - व्रत को सबसे उत्तम बताया गया है. इस लोक मे जो नाना प्रकार के व्रत, विविध तीर्थ, भांति भांति के विचित्र दान, अनेक प्रकार के यज्ञ , तरह - तरह के तप तथा बहुत-से-जप है, वे सब इस शिवरात्रि व्रत की समानता नहीं कर सकते. इसलिए अपना हित चाहनेवाले मनुष्यों को इस शुभतर व्रत का अवश्य पालन करना चाहिए. यह शिवरात्रि-व्रत दिव्या है. इससे सदा भोग और मोक्ष की प्राप्ति होती है. संजय मेहता! यह शुभ शिवरात्रि -व्रत व्रतराज के नाम से विख्यात है. इसके विषय मे सब बाते मैंने तुम्हे बता दी संजय मेहता, अब और क्या सुनना चाहते हो.











1 टिप्पणी:

PANKAJ SHARMA ने कहा…

jai shiv bhole...jai mata di ji..