पूर्वजों का श्राद्ध कर्म करना आवश्यक क्यों?
ब्रह्मपुराण के मतानुसार अपने मृत पितृगण के उद्देश्य से पितरों के लिए श्रद्धा पूर्वक किये जाने वाले कर्म विशेष को श्राद्ध कहते है, श्राद्ध से ही श्रद्धा कायम रहती है. कृतज्ञता की भावना प्रकट करने के लिए किया हुआ श्राद्ध समस्त प्राणियों में शांतिमयी सद्दभावना की लहरें पहुंचाता है. ये लहरें, तरंगे ना केवल जीवित को बल्कि मृतक को भी तृप्त करती है. श्राद्ध द्वारा मृतात्मा को शांति-सद्गति मोक्ष मिलने की मान्यता के पीछे यही तथ्य है.. इसके आलावा श्राद्धकर्ता को भी विशिष्ट फल की प्राप्ति होती है
मनुस्मृति में लिखा है. :- मनुष्य श्रद्धावान होकर जो - जो पदार्थ अच्छी तरह विधि पूर्वक पितरो को देता है, वह - वह परलोक में पितरों को आनंद और अक्षेय रूप में प्राप्त होता है .
ब्रह्मपुराण में कहा गया है कि आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में यमराज सभी पितरो को अपने यहाँ से छोड़ देते है, ताकि वे अपनी संतान से श्राद्ध के निमित्त भोजन ग्रेहण कर ले. इस माह में श्राद्ध ना करने वालों के पितृ अतृप्त उन्हें शाप देकर पितृ लोक को चले जाते है. इससे आने वाली पीढियो को भारी कष्ट उठाना पडता है, उसे ही पितृदोष कहते है. पितृ जन्य समस्त दोषों कि शांति के लिए पूर्वजों कि मृत्यु तिथि के दिन श्राद्ध कर्म किया जाता है, इसमें ब्राह्मणों को भोजन कराकर तृप्त करने का विधान है, श्राद्ध करने वाले व्याक्ति को क्या फल मिलता है , इस बारे में गरुंडपुराण में कहा गया है :-
श्राद्ध कर्म करने से संतुष्ट होकर पितृ मनुष्यों के लिए आयु, पुत्र, यश, मोक्ष , स्वर्ग, कीर्ति, पुष्ठि, बल, वैभव, पशुधन, सुख, धन और धान्य वृद्धि का आशीष प्रदान करते है.
यमस्मृति 36.37 में लिखा है कि पिता, दादा और परदादा ये तीनो ही श्राद्ध की ऐसे आशा करते है , जैसे वृक्ष पर रहते हुए पक्षी वृक्ष में फल लगने की आशा करते है, उन्हें आशा रहती है कि शहद , दूध व् खीर से हमारी संतान हमारे लिए श्राद्ध करेगी
देवताओ के लिए जो हव्य और पितरो के लिए कव्य दिया जाता है, ये दोनों देवताओ और पितरो को कैसे मिलता है , इसके सम्बंध में यमराज ने अपनी स्मृति में कहा है :- मन्त्र्वेक्त्ता ब्रह्मण श्राद्ध के अन्न के जितने कौर अपने पेट में डालता है, उन कौरों को श्राद्धकर्ता का पिता ब्राह्मण के शरीर में स्थित होकर पा लेता है.
विष्णुपुराण में लिखा है की श्रद्धायुक्त होकर श्राद्धकर्म करने से केवल पितृगण ही तृप्त नहीं होते, बल्कि ब्रह्मा, इंद्र, रूद्र, आशिवनिकुमार, सूर्य, अग्नि, अष्टवसु , वायु, ऋषि , मनुष्य, पशु, पक्षी और सरीसृप आदि समस्त भूत प्राणी तृप्त होते है.
अब बोलिए जय माता दी, जय पितरो की. जय जय माँ.
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Sanjay Mehta
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