शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

भगवान माखन क्यों चुराते है ? : Bhagwan Makhan Kyu Churate Hai? By Sanjay Mehta Ludhiana











भगवान माखन क्यों चुराते है ?



भगवान की इस दिव्य लीला माखन चोरी का रहस्य न जानने के कारण ही कुछ लोग इसे आदर्श के विपरीत बतलाते है.उन्हे पहले समझना`चाहिये चोरी क्या वस्तु है,वह किसकी होती है,और कौन करता है.चोरी उसे कहते है जब किसी दूसरे की कोई चीज, उसकी इच्छा के बिना, उसके अनजाने में ओर आगे भी वह जान ना पाए - ऐसी इच्छा रखकर ले ली जाती है. भगवान श्रीकृष्ण गोपियों के घर माखन लेते थे उनकी इच्छा से,गोपियों के अनजाने में नहीं -उनकी जान में,उनके देखते-देखते और आगे जनाने की तो बात ही नहीं -उनके सामने ही दौडते हुए निकल जाते थे.


दूसरी बात महत्त्व की ये है कि संसार में या संसार के बाहर ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो श्रीभगवान की नहीं है और वे उसकी चोरी करते है. गोपियों का तो सर्वस्व श्रीभगवान् का था ही, सारा जगत् ही उनका है. वे भला, किसकी चोरी कर सकते है ? हाँ चोर तो वास्तव में वे लोग है,जो भगवान की वस्तु को अपनी मानकर ममता-आसक्ति में फँसे रहते है और दंड के पात्र बनते है


'श्रीकृष्णगतप्राणा', 'श्रीकृष्ण रसभावितमति' गोपियों के मन की क्या स्थिति थी. गोपियों का तन-मन- धन - सभी कुछ प्राणप्रियतम श्रीकृष्ण का था.वे संसार में जीती थी श्रीकृष्ण के लिये,घर में रहती थी श्रीकृष्ण के लिये और घर के सारे काम करती थी श्रीकृष्ण के लिये उनकी निर्मल और योगिन्द्रदुर्लभ पवित्र बुद्धि में श्रीकृष्ण के सिवा अपना कुछ था ही नहीं.श्रीकृष्ण के लिये ही ,श्रीकृष्ण को सुख पहुँचाने के लिये ही श्रीकृष्ण की निज सामग्री से ही श्रीकृष्ण को पूजकर -श्रीकृष्ण को सुखी देखकर वे सुखी होती थी.प्रात:काल निंद्रा टूटने से लेकर रात को सोने तक वे जो कुछ करती थी,सब श्रीकृष्ण की प्रीति के लिये ही करती थी यहाँ तक कि उनकी निंद्रा भी श्रीकृष्ण में ही होती थी स्वप्न और सुषुप्ति दोनो में ही वे श्रीकृष्ण की मधुर और शांत लीला देखती और अनुभव करती थी.ये गोपियाँ पूर्व जन्म में ऋषि थे जो भगवान की लीलाओ का रसास्वादन करने के लिए ही वृंदावन में गोपी बनकर आये थे.


भक्तो का ह्रदय ही माखन है, जिसे भगवान चुराते है और फिर मटकी फोड देते है क्योकि जब ये मन भगवान का हो गया तो फिर इस देह रूपी मटकी का क्या काम इसलिए इसे भगवान फोड देते है "संत ह्रदय नवनीत सामना"


रात में दही ज़माते समय श्यामसुन्दर की माधुरी छबि का ध्यान करती हुई प्रेममयी प्रत्येक गोपी ये अभिलाषा करते थी कि मेरा दही सुन्दर जमे,उसे विलोकर मै बढि़या-सा और बहुत-सा माखन निकालूँ और उसे उतने ही ऊँचे छीके पर रखूँ,जितने पर श्रीकृष्ण के हाथ आसानी से पहुँच सके.फिर मेरे प्राणधन अपने सखाओं के साथ लेकर हँसते हुए घर में आयेगे,आनन्द में मत्त होकर मेरे आगन में नाचे और मैं किसी कोने में छिपकर इस लीला को अपनी आँखो से देखकर जीवन सफल करुँ और फिर अचानक ही पकड़कर हृदय से लगा लूँ .सभी दृष्टियों से यही सिद्ध होता है कि माखनचोरी, चोरी न थी,भगवान की दिव्य लीला थी असल में गोपियों ने प्रेम की अधिकता से ही भगवान का प्रेम का नाम चोर रख दिया क्योकि वे उनके चित्तचोर तो थे ही.

गोपी किसी का नाम नहीं है गोपी तो एक भाव है जिस तक कोई विरला ही पहुँच सकता है.

जय माता दी जी , जय जय श्री राधे

Sanjay Mehta
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