जगजननी श्री सीता जी
श्री सीता माता प्रेम की मूर्ति है. दया की समुंदर है. रामायण के अरण्यकांड में जयंत का प्रसंग आता है. जयंत ने अपराध श्री सीता माँ का ही किया परन्तु माताजी को उस पर दया आई, संत एसा मानते है की जयंत का अपराध अक्षम्य है, क्षमा करने लायक नहीं. रामजी जयंत को मारने के लिए तैयार हुए परन्तु सीताजी को दया आई, माताजी उसको क्षमा कर देती है. इतना ही नहीं रामजी से विनती करती है के इसे क्षमा करो
जग-जननी ने प्रभु स्म्मुखः कर क्रव्य अघ-ताप विनाश
वाल्मीकिजी ने युद्ध-कांड में श्री सीताजी की एक कथा वर्णन की है
रावण के साथ युद्ध पूरा हुआ, रामजी ने रावण का वध कर दिया. हनुमान जी को अशोक-वन में जाकर श्री सीताजी ले आने की आज्ञा हुए. हनुमान जी दौड़ते दौड़ते अशोक-वन आये. वहा शीशम वृक्ष के तले श्री सीता माँ श्री रामजी का ध्यान धरे बैठी है. फुल से श्री राम - नाम लिखा हुआ है. माताजी ने दृष्टि श्री राम-नाम में स्थित की हुई है. वे किसीपर दृष्टिपात करती नहीं. श्री हनुमानजी ने आकर श्री सीता माँ को साष्टांग वंदन किया और कहा 'माँ! तुम्हारे आशीर्वाद से अपनी जीत हुई है. प्रभु ने रावण का वध किया. श्री राम-लक्ष्मण आनंद में विराजे है. माँ! तुम्हारा यह दास आज आपको श्री राम जी के दर्शन करवाएगा. अब आप शीघ्र पधारे.
हनुमान जी रामचंद्र जी के दर्शन करायेंगे-यह सुनकर श्री सीता जी को अत्यंत आनद हुआ . आखे भावभीनी हो गई. श्री सीताजी ने प्रसन्न होकर हनुमान को को अनेक आशीर्वाद दिए. अनेक वरदान दिए -'हनुमान! सब सौम्य सद्गुणों का तुम्हारे अंदर निवास हो. आज मै तुमको क्या दू? मेरा आशीर्वाद है के मेरे हनुमान को काल भी नहीं मार सकेगा, मेरे हनुमान के आगे काल हाथ जोड़कर खड़ा रहेगा, काल सेवक बनकर रहेगा
काल प्रयेक की छाती के उपर पैर रखता है, काल एक - एक को मारता है, परन्तु हनुमान जी के आगे काल भी हाथ जोड़कर खड़ा रहता है, हनुमान जी महाराज आज भी इस लोक में विराजते है
श्री सीताजी कहते है 'मेरे हनुमान को काल मार सकता नहीं, हनुमान! मेरा आशीर्वाद है कि तू चिरंजीवी हो. साधू-महात्मा को ज्ञानी पुरष तुझे सदगुणी मानेंगे और तेरी पूजा करेंगे. जगत में तेरी कीर्ति खूब बढ़ेगी , तेरी बहुत पूजा होगी.
हनुमानजी संतो के सध्गुरू है. ज्ञानियो में आग्रनी है
हनुमान जी कि पूजा सर्वत्र होती है, अरे! रामजी कि पूजा अधिक होती है या हनुमानजी की? एक छोटा सा ग्राम हो, वहां कदाचित रामजी का मंदिर नहीं होगा परन्तु हनुमान जी कि एक छोटी - सी देहरी अवश्य होगी
श्री सीता माँ के प्रसन्नता का पार नहीं, माताजी कहती है - 'मेरा हनुमान जहाँ होगा वहा अष्टमहासिद्धिया इनकी सेवा में हाजिर रहेंगी.
अष्ट सिद्धि नव निधि के दाता , अस वर दिन्ह जानकी माता
हनुमान जी जिस समय श्री सीताराम कि सेवा में होते है, उस समय बालक जैसे होते है, जो बालक जैसा है, वही सेवा कर सकता है, सेवा में मान-विघ्न करता है, बड़े-बड़े महात्मा भी पांडित्य छोड़कर, बालक के समान बनकर, परमात्मा की सेवा करते है. सेवा के ज्ञान का अभिमान, प्रमाद उत्पन्न कराता है. हनुमान जी बालक के समान है, वे सीताजी से कहते है - ' माताजी ! आपने तो बहुत कुछ दिया है, वह ठीक है, परन्तु मै आज अपनी इच्छा से मांगता हु. आज तो मेरा मांगने का ख़ास हक़ है माँ!, मै मांगता हु, वह आज आपको देना ही पड़ेगा.
माताजी ने कहा - 'बेटा! मैंने तुझे देने में क्या बाकी रखा है? तू अमर हो जा. जगत में तेरी जय - जय कार हो
हनुमान जी ने कहा -'माँ! यह सब तो ठीक है, मुझको जो चाहिए , वही दीजिये
माताजी ने कहा - तब तुम मांगो बेटा! तुम जो मांगोगे वही मिलेगा.
हनुमान ने हाथ जोड़कर कहा. माँ! रामजी का सन्देश लेकर लंका में जब मै पहली बार आया था, तब मैंने अपनी आँखों से देखा था कि यह राक्षसिय मेरी माँ को बहुत त्रास देती थी, ये बहुत खराब बोलती थी, आपको बहुत डराती थी, बहुत खिझाती थी, माँ! यह सब मैंने अपनी आँखों से देखा है, रामजी ने राक्षसों को मारा है, परन्तु लंका में ये राक्षसिया अभी बाकी है, इन राक्षसियों को देखकर मुझे बहुत क्रोध आता है, इनको मारने कि मेरी बहुत इच्छा है. आप आज्ञा दे तो मै एक एक राक्षसी को पीस दू. मेरी माँ को जिन राक्षसियों ने त्रास दिया है, उनमे से एक एक को खूब दंड दू
हनुमान जी महाराज तो राक्षसियो को मारने कि लिए तैयार हो गए परन्तु सीता जी ने मना कर दिया, कहा - बेटा ! यह तू क्या मांगता है? मेरा पुत्र होकर तू ऐसी मांग करता है? वैर का बदला वैर से लेना योग्य नहीं . वैर का बदला प्रेम है,
सीता जी ने हनुमान जी से कहा - बेटा! बदला जो प्रेम से लेते है वे ही संत है, वैर की शांति वैर से नहीं प्रेम से होती है. अपकार का बदला उपकार से और अपमान का बदला मान से दे, वही संत है. ये राक्षसिया तो रावण की आज्ञा में थी, रावण के कहने से मुझे कष्ट देती थी. इसमें इनका तो कोई दोष नहीं. यह दुःख मेरे कर्मो का फल है, मैंने लक्ष्मण जी का अपमान किया, उसका यह फल मुझे मिला है, एक साधारण पशु भी स्वधर्म का पालन करता है, वह वैर के बदले प्रेम देता है.
इस लिए बेटा! तू इन राक्षसियो को मारना नहीं, मुझे इन राक्षसियो पर दया आती है, मै तो ऐसा विचार करती हु. कि अब मुझे अयोध्या जाना है, इतने अधिक दिन मै इन राक्षसियो के साथ रही हु. ये राक्षसिया जो कोई वरदान मांगे वह मुझको इन्हें देना है. बेटा! मैंने तो निश्चय किया है के मै इन राक्षसियो को सुखी करके ही यहाँ से जाऊ. यह राक्षसिया बहुत दुखी है. तू किसी भी राक्षसी को मारना नहीं
राक्षसियो को मारने की सीता जी ने मनाही की तो हनुमान जी ने सीता माँ का जय जयकार किया, सीता माँ को साष्टांग वन्दन करके हनुमान जी ने कहा - ऐसी दया तो मैंने श्री रामजी में भी देखि नहीं, श्री राम दयालु है, यह बात सत्य है, परन्तु ऐसी दया मैंने जगत में कही देखी नहीं, जगजननी! आपमें ही यह दया मैंने देखी , माँ! तुम जगन्माता हो, इसलिए तुमको सब पर दया आती है .
श्री सीता जी दया की , प्रेम की मूर्ति है, उनका वर्णन कौन कर सकता है, उनको तो सब पर दया आती है, वे जगत की माँ है
रामजी की माँ तो कौशल्या हो सकती है, परन्तु सीताजी की माँ कौन हो सकती है, श्री सीताजी की तो कोई माँ नहीं, इनका कोई पिता भी नहीं, यह सबकी माँ है, सर्वेश्वरी , सर्वश्रेष्ट है.
जगजननी की माँ कौन हो सकती है? उनकी माँ कोई हो सकती नहीं, श्री सीता जी का जनम दिव्या है, लय दिव्या है, श्री सीता माँ धरती से बाहर प्रकटी और धरती में ही लीन हो गई,
बोलिए सीता माता की जय
बोलिए मेरी माँ वैष्णो रानी की जय
बोलिए मेरी माँ राज रानी की जय
जय माता दी
जय श्री राम
जय श्री हनुमान
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