रांका जी की कथा
यह रंकाजी यद्यपि जाति के कुम्हार थे, तथापि भगवदचरणों के आप बड़े अनुरागी थे. दिनभर कठिन परिश्रम करके आप जो कुछ भी कमाते थे, वह सब साधू संतो के सेवा में खर्च कर देते थे. एक दिन आपने कच्चे बर्तनों का अवा तैयार किया किन्तु किसी कारणवश उस में उस दिन आग ना दे सकते. रात्रि को बिल्ली ने आकर एक कच्चे बर्तन में अपने बच्चे दिए और कही चली गई, रांकाजी ने प्रात: काल उठते ही अवा में आग लगा दी , जब आग की लपट पूर्णतया उठ रही थी, उस समय किसी ने आप से कहा कि आपके अवा के किसी बर्तन में बिल्ली अपने बच्चे जनकर चली गई है. अब तो यह बड़े घबराये, किन्तु उस समय कर ही क्या सकते थे. आप दुःख से बिलख बिलख कर रोने लगे और उस दीनबंधु भगवान को याद करने लगे. क्युकि ऐसे समय सिवाए भगवान के और कोई सहारा ना था. यद्यपि रांकाजी का कुल घरवार जल जाता और चाहे स्वय भी अग्नि में भस्म जो जाते तो भी भगवान से किसी प्रकार कि प्राथना नहीं करते, भक्तो कि इच्छा तो प्रभु बिना मांगे ही पूरी करते है, किन्तु उस समय बिल्ली के बच्चो को मृत्यु के मुख में देखकर एक दम दया उपज आई और भगवान का स्मरण करने लगे. निदान जब प्रभु ने रांका जी को अत्यंत बिकल देखा तो ऐसी माया फैलाई कि समस्त अवा तो पक गया, लेकिन जिस बर्तन में बिल्ली के बच्चे थे उसमे आग कि गर्मी तक भी नहीं पहची , अनन्तर जब रांकाजी ने अबा उतरा तो बच्चे आनंद पूर्वक बैठे हुए मिले, ऐसी माया भगवान कि देखकर रांकाजी परमानंदित हुए और भगवान के श्री चरणों में झुकर साष्टांग प्रणाम किया, उस दिन से कुम्हारों में बराबर यह रीति चली आती है कि जिस दिन अवा तैयार करते है उसी दिन आग भी दे देते है, दुसरे दिन नहीं छोड़ते
सुख और दुःख दोनों सगे भाई है, ये साथ ही रहते है, जीव को सुख की भूख नहीं, आनंद की भूख है . यह आनंद चाहता है, पर आनंद संसार में नहीं, आनंद , इश्वर का स्वरूप है, जहाँ जगत है, वही सुख - दुःख है, जहाँ जगत नहीं, वहा सुख है ना दुःख. वहा है केवल आनंद. परमानंद -रूप श्री राम सुख देते नहीं, श्री राम दुःख देते नहीं, श्री राम तो केवल आनंद देते है.
किसी भी भाषा में "आनंद" का विरोधी शब्द मिलता नहीं, "सुख" का विरोधी शब्द "दुःख" है, "लाभ" का विरोधी शब्द "हानि" है. "राग" का विरोधी शब्द "द्वेष" है, आनंद का विरोधी शब्द कुछ नहीं, परमत्मा आनंदरूप है
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