जो जगत का मित्र है उसे विश्वामित्र कहते है, और जो जगत का मित्र है उसके पीछे जगदीश चलते है, तुम भी जब जग्नमित्र हो जायोगे तब परमात्मा तुम्हारे पीछे आवेंगे, तुम जगत के मित्र नहीं हो सको तो भी कोई बाधा नहीं, परन्तु किसी के वैर मत बनो. विश्वामित्र अर्थात जगंमित्र , जो जगत का मित्र है और जगत जिसका मित्र है
श्री राम परब्रह्म है और लक्ष्मण जी शब्द्ब्रेह्म है, शब्द्ब्रेह्म और परब्रह्म साथ साथ रहते है, श्री कृष्णलीला में श्री कृष्ण परब्रह्म है, और बलराम जी श्ब्दब्रेह्म है, अकेले राम किसी जगह जाते नहीं, और कदाचित जाते हो तो अधिक विराजते नहीं, जहा लक्ष्मण जी हो वहा ही रामजी विराजते है, जहाँ शब्द्ब्रेह्म है वहा ही परब्रह्म स्थिर होता है, राम-लक्ष्मण की जोड़ी है, रामजी श्यामसुंदर है, लक्ष्मण जी गौरसुंदर है, रामजी पीला पीताम्बर पहनते है, लक्ष्मण जी नीला पहनते है, राम - लक्ष्मण गुरुदेव की सेवा करने के लिए गुरु जी के पीछे पीछे चलते है
रामजी का हाथ घुटने को स्पर्श करता है, श्री राम आजानुबाहु है. हाथ का घुटने को स्पर्श करना महायोगी और अति भाग्यशाली का लक्षण है, कदाचित तुमको लगता होगा की हमारा हाथ भी घुटने से लगता है, अरे बैठे बैठे घुटने को हाथ लगे, उसका कुछ अर्थ नहीं , खड़े होने पर हाथ घुटने को स्पर्श करे तो महायोगी का , महाभाग्यशाली का लक्ष्ण है
श्री राम यज्ञ -मंडप पर खड़े है, अधिकतर मंदिर में ठाकुर जी खड़े ही होते है, यदि तुम द्वारिका जाओ तो देखोगे की द्वारिकानाथ खड़े है, तुम पन्ढरपुर में श्री बिट्ठलनाथ जी महाराज खड़े है, पन्ढरपुर में श्री बिट्ठल जी का स्वरूप ऐसा सौभ्य और मंगलमय है की दर्शन करते समय ऐसा लगता है की खड़े रह कर प्रभु किसी की प्रतीक्षा कर रहे है, ठाकुर जी का श्री अंग तो बहुत ही कोमल है, फिर भी वे भक्तो के लिए खड़े हुए है, एक दिवस मन में थोडा विचार आया की ठाकुर जी समस्त दिवस खड़े रहते है, उसमे उनके कोमल चरणों को कितना परिश्रम होता होगा! तुमको कोई एक घंटा खड़ा रखे तो तुम्हारी क्या दशा हो? श्री नाथद्वारा में श्री नाथ जी बाबा भी खड़े है, तुम आंध्र-प्रदेश में जाओ तो वहा भी श्री बालाजी महाराज खड़े हुए है. परमात्मा जगत को बोध देते है की अपने भक्तो से मिलने के लिए मै आतुर हो कर खड़ा हु
नदी समुंदर में जा कर मिलती है , उस पीछे समुंदर से वह अलग रह सकती नहीं, उसका नामरूप भी समुंदर में मिल जाता है, समुंदर में मिले पीछे समुंदर भी नदी को स्वयं के स्वरूप से अलग कर सकता नहीं , मन से बारम्बार ऐसा सकल्प करो की अब मुझे परमात्मा से मिलना है
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