अयोध्या वैराग्य-भूमि है. अयोध्या में रहकर भक्ति करे तो भक्ति द्रढ़ होती है. अयोध्या अति दिव्या भूमि है. अयोध्या के साधू बहुत संतोषी होते है. अयोध्या के साधू कभी मांगते नहीं. उनकी ऍसी निष्ठां होती है की श्री सीतारामजी हमको देते है. ये फटी कौपीन पहनते है, बहुत भूख लगती है तो सत्तू खाते है और सम्पूर्ण दिवस सीताराम - सीताराम- सीताराम ऐसा जाप करते है, आँख उची करके वे किसी के सामने देखते नहीं. पास में पैसा ना हो, खाने को ना हो , फिर भी मांगते नहीं. उनकी ऍसी भावना है की श्री सीताजी हमको सब कुछ देंगी, अगर कुछ मांगेंगे तो माँ के पास से ही मांगेगे , हमको किसी मनुष्य के पास जाकर माँगना नहीं. दुसरे के पास जाकर मांगने से सीता माँ को बुरा लगेगा. श्री सीता माँ हमको जरुर देगी. संतो का दर्शन अयोध्याजी मे जैसा होता है, वैसा अन्य किसी जगह नहीं होता .
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भगवान अनुकूलता दे तो अयोध्याजी में जाकर रहना परन्तु अधिक उपयुक्त तो यह है कि तुम अपने घर को ही अयोध्या बनाओ, अयोध्या शब्दपर थोडा विचार करो. जहा युद्ध नहीं, उसे अयोध्या कहते है , जहा युद्ध नहीं, जहा वैर नहीं, जहा विकार-वासना नहीं, जहा मेरा-तेरा नहीं, जहा कपट नहीं, जहा दम्भ नहीं, जहा है केवल शुद्ध प्रेम, जहा शुद्ध प्रेम हो, वही परमात्मा प्रगट होते है, वैर और वासना तन को बिगाड़ते है, मन को बिगाड़ते है
अपने तन-मन को अयोध्या बनाना हो तो एसा द्रढ़ निश्चय करो के आज से मेरा कोई शत्रु नहीं, मेरा किसी ने कुछ बिगाड़ा नहीं, मुझे किसी ने तनिक भी दुःख दिया नहीं, मेरे दुःख का कारण मेरे ही अंदर है, मेरा स्वय का अज्ञान ही है , अधिकतर मनुष्य अज्ञान से ही दुखी होता है. समझदारी में सुख है, और अज्ञान में दुःख है. अज्ञान से ही वैर और वासना जागते है. मानव ऍसी कल्पना करता है कि अमुक व्यक्ति ने मुझे दुःख दिया है. यह कल्पना खोटी है. दुःख मनुष्य के स्वय के कर्म का फल है. कोई किसी को सुख देता नहीं. कोई किसी को दुःख दे सकता नहीं, संसार कर्म-भूमि है. किये हुए कर्म का फल भोगने के लिए यह जन्म मिला है, करेले का बीज बोये और केले कि आशा रखे, यह असम्भव है. मनुष्य ने स्वय जो बोया , वही उसको काटना है. इस जगत में कोई किसी का कुछ बिगाड़ता नहीं तुम जगत में किसी के लिए भी कुभाव ना रखो. सबमे प्रभु का दर्शन करो .
Sanjay Mehta
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