
मांगने से सच्ची मैत्री के गौरव कि हानि होती है। सच्चा समझदार मित्र कभी कुछ नहीं मांगता . सुदामा कि भगवान के प्रति सच्ची भक्ति थी . वे दरिद्र थे। पत्नी ने कुछ मांगने के लिए उन्हें भगवान् के पास भेजा . सुदामा भगवान् के पास आये किन्तु मांगने के लिए नहीं, मिलने के लिए। उन्होंने द्वारिकापति का वैभव देखा, फिर भी जुबान तक नहीं खोली। सुदामा ने सोचा कि मैत्री -मिलन से ही यदि भगवान् कि आँखे भीग गई है तो फिर अपनी दरिद्रता कि बात बताने पर तो उन्हें कितना गहरा दुःख होगा। मेरे दुःख का कारण मेरे कर्म ही है। मेरे दुःख की गाथा सुनकर तो उन्हें दुःख ही होगा। ऐसा सोचकर सुदामा ने भगवान् से कुछ नहीं माँगा। सुदामा की तो यही इच्छा थी कि अपने द्वारा लाये गए मुट्ठी भर तंदुल का भगवान् प्रेम से प्राशन करे . भगवान् जाने कि वह कुछ लेने नहीं, देने आया है
ईश्वर पहले हमारा सर्वस्व लेते है और फिर अपना सर्वस्व हमें देता है। जीव के निष्काम होने पर ही भगवान् उसकी पूजा करते है। भक्त जब निष्काम होता है तो भगवान् अपने सवरूप का दान भक्त को देते है।
जीव जब अपना जीवत्व छोड़कर ईश्वर के द्वार पर जाता है, तब भगवान् भी अपना ईश्वर तत्व भूलकर भक्त से मिलते है
सुदामा दस दिन का भूखा था। फिर भी अपना सर्वस्व (मुट्ठी भर तंदुल) प्रभु को दे दिया। सुदामा के तंदुल चाहे मुट्ठी भर ही थे फिर भी वही तो उस समय उसका सर्वस्व था। वैसे मुट्ठी भर तंदुल कि कोई इतनी बड़ी कीमत नहीं है, किन्तु मूल्य तो सुदामा के प्रभु - प्रेम का है।
यदि मेरे लिए श्री ठाकुर जी को थोडा - सा श्रम uthana पड़ेगा तो मेरी भक्ति व्यर्थ है। निष्फल है ऐसा मानो , भगवान् से कुछ भी ना मांगो। ना मांगने से भगवान् तुम्हारे ऋणी होंगे।
गोपियो का प्रेम शुद्ध है, वे जब भी भगवान् का समरण करती है, ठाकुर जी को प्रगट होना ही पड़ता है। गोपियो की निष्काम भक्ति इतनी सत्वशील है कि भगवान् खींचे हुए चले आते है।
ठाकुर जी को सदा साथ रखोगे जहाँ भी जाओगे , भक्ति कर सकोगे . तभी तो तुकाराम भगत कहते है , मुझे चाहे भोजन ना भी मिले, परन्तु हे संजय मेहता के प्रभु विट्ठलनाथ , मुझे एक भी क्षण तुम अपने से अलग मत रखना
जय माता दी जी

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